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। इतिहास की अमर बेल
४२५ मुनि अमरसिंहजी जितने महान् थे उतने ही विनम्र भी थे। आप चीनी भाषा के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ताओ उपनिषद् में लिखा है कि पुष्पित फलित विराट वृक्ष के समान ज्यों-ज्यों यशस्वी, महान् और हृदय से निकले हुए शब्द लच्छेदार नहीं होते और लच्छेदार शब्द प्रख्यात हुए त्यों-त्यों अधिक विनम्र होते गये। गुरुजनों के प्रति ही । कभी विश्वास योग्य नहीं होते। जो वाणी हृदय की गहराई से नहीं, लघुजनों के प्रति भी आपके हृदय में अपार प्रेम था। जब निकलती है उसमें स्वाभाविकता होती है और सहजता होती है। जैसे कभी भी लघु श्रमण भी रुग्ण होते तब आपश्री उनकी स्नेह से सेवा कुएँ की गहराई से निकलने वाला पानी शीतल, निर्मल और ताजा करते थे। अहंकार और ममकार के दुर्गुणों से आप कोसों दूर थे। होता है वैसे ही सहज वाणी भी प्रभावशाली होती है। जो उपदेश आपश्री सद्गुरुदेव के साथ ही पंजाब के विविध अंचलों में आत्मा से प्रस्फुटित होता है वह आत्मा का स्पर्श करता है, किन्तु जो परिभ्रमण कर धर्म की प्रबल प्रभावना करते रहे। हजारों व्यक्ति जीभ से निकलता है उसमें चिन्तन, भावना और आचार का बल न आपके उपदेशों से प्रभावित होकर श्रावक बने और सम्यक्त्वरत्न होने से वह हृदय को स्पर्श नहीं कर सकता। हृदय से निकली हुई को प्राप्त किया। बीस व्यक्तियों ने आर्हती दीक्षा ग्रहण कर आपका बात में बकवास नहीं होता किन्तु तीर-सी वेधकता होती है। शिष्यत्व स्वीकार किाय।
आचार्य संघदासगणी ने अपने बृहत्कल्पभाष्य में लिखा है कि संवत् १७६१ में आचार्य श्री लालचन्दजी महाराज का गुणवान व्यक्ति का वचन घृतसिंचित अग्नि की तरह तेजस्वी और चातुर्मास अमृतसर में था। आचार्यश्री का स्वास्थ्य अस्वस्थ रहने पथ-प्रदर्शक होता है, किन्तु गुणहीन व्यक्ति का वचन स्नेहरहित लगा। उनके मन में स्वास्थ्य पूर्ण रूप से ठीक होने की सम्भावना दीपक की तरह निस्तेज और अन्धकार से परिपूर्ण होता है। क्षीण हो गई। उन्होंने उसी समय-चतुर्विध संघ को बुलाकर उल्लास आचार्यश्री अमरसिंह जी महाराज के प्रवचनों में जीवन का गहरा के क्षणों में अमरसिंह मुनि को युवाचार्य पद प्रदान किया। सभी ने चिन्तन था, मनन था, साथ ही अनुभवों का सुदृढ़ पृष्ठबल था। नदी आचार्यश्री की अनूठी सूझ-बूझ की प्रशंसा की। आचार्यश्री ने । की निर्मल धारा की तरह उसमें गति थी, प्रगति थी और आलोचना व संथारा ग्रहण किया।
जाज्वल्यमान अग्नि की तरह उसमें आचार और विचार का तेज
था। उनके प्रवचनों में वासीपन नहीं, किन्तु विचारों, भावों और जैन साधना में समाधिपूर्ण जीवन का जितना महत्व है उससे भी अधिक महत्व समाधिपूर्ण मृत्यु का है। समाधिपूर्ण मृत्यु को
भाषा में ताजगी थी। यही कारण है कि जातिवाद, पंथवाद और वरण करने वाले साधक को पूर्ण शान्ति और समाधि प्राप्त करनी
सम्प्रदायवाद को भूलकर हजारों की संख्या में हिन्दू-मुसलमान, सिख होती है। आचार्यश्री ने सभी के साथ खमत-खामणा किये और और जैनी प्रवचन-सभाओं में उपस्थित होते थे और आचार्यश्री के
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DI कार्तिक कृष्णा अमावस्या के दिन पन्द्रह दिन के संथारे के पश्चात्
पावन प्रवचनों को सुनकर झूमने लगते थे। आचार्यश्री के प्रवचनों स्वर्गवासी हुए।
की धूम से देहली गूंज रही थी। आचार्य पद पर प्रतिष्ठा
उस समय हिन्दुस्तान के बादशाह थे शाहनशाह बहादुरशाह।१६
वे दक्षिण से अजमेर आये थे। बादशाह से किसी विशिष्ट कार्य के संघ ने युवाचार्य श्री अमरसिंह जी महाराज से सनम्र प्रार्थना
लिए मिलने हेतु जोधपुर के महामन्त्री खींवसी जी भण्डारी अजमेर की कि आपश्री आचार्य पद पर आसीन होकर हमें सनाथ करें।।
आये और शहजादा अजीम के मारफत संवत् १७६७ में बादशाह स्थान-स्थान से शिष्ट मण्डल अमृतसर पहुँचे और सभी ने अपने से मुलाकात की। बादशाह भण्डारी जी को लेकर अजमेर से लाहौर यहाँ आचार्य पद महोत्सव मनाने की प्रार्थना की। अन्त में देहली होते हुए देहली पहुँचे। उस समय आचार्यप्रवर अमरसिंहजी महाराज संघ की प्रार्थना को स्वीकार किया गया और आपश्री शिष्य समुदाय की प्रवचन-कला की प्रशंसा भण्डारी खींवसी जी ने सुनी। वे व सन्तों को लेकर देहली पधारे। संवत् १७६२ में चैत्र शुक्ला पूज्यश्री के प्रवचन श्रवण हेतु पहुँचे। पूज्यश्री के प्रभावोत्पादक पंचमी के दिन देहली में आचार्य पद महोत्सव मनाया गया।
प्रवचनों को सुनकर खींवसी जी अत्यधिक प्रभावित हुए।१७ उन्होंने 'आचार्यश्री अमरसिंहजी महाराज की जय' के सुमधुर घोष से श्रावक धर्म ग्रहण किया। वे प्रतिदिन नियमित रूप से प्रवचन श्रवण वायुमण्डल गूंज उठा। समूचा संघ हर्ष से पुलकित हो उठा। आपश्री करने के लिए उपस्थित होते। विविध विषयों पर आचार्यप्रवर से जैसे अनासक्त कर्मठ आचार्य को पाकर संघ धन्य हो गया। विचारचर्चा भी करते। आचार्यश्री अमरसिंहजी ने देहली संघ की प्रार्थना को सम्मान
68000EOP विकट समस्या : सरल समाधान
500 देकर देहली में इस वर्ष वर्षावास सम्पन्न किया, धर्म की अत्यधिक
9000 प्रभावना हुई। उसके पश्चात् पुनः आपश्री पंजाब संघ की प्रार्थना बादशाह बहादुरशाह की अनेक लड़कियाँ थीं। एक कन्या जो को संलक्ष्य में रखकर पंजाब पधारे और चार चातुर्मास पंजाब में अविवाहिता थीं, वह गर्भवती हो गयी। जब बादशाह को यह सूचना करके पुनः संवत् १७६७ में देहली में चातुर्मासार्थ पधारे। पूज्यश्री प्राप्त हुई तब वे क्रोध से आग-बबूला हो उठे। उनकी आँखें क्रोध से का तेज प्रतिदिन बढ़ रहा था। उनके प्रवचनों में चुम्बकीय अंगारे की तरह लाल हो गयीं। उन्होंने कहा-यह लड़की कुल को आकर्षण था।
कलंक लगाने वाली है। शाही कुल में इस प्रकार की लड़कियों की
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