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तल से शिखर तक
अजरामपुरी अजमेर के पवित्र प्रांगण में सन्त सम्मेलन का सफल आयोजन इसी भव्य भावना को लेकर किया गया था, जिसमें सन्तगण ने सोत्साह भाग लिया। संगठन के महत्व पर गम्भीरता से विचार-विमर्श किया। यह अत्यधिक प्रसन्नता का विषय है कि हमारे प्रतिभासम्पन्न वयोवृद्ध व अनुभवी सन्तों ने उस प्रशस्त भूमि का निर्माण किया जिससे पारस्परिक कटुता कम हुई तथा एक सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदाय के अत्यधिक सन्निकट आया और स्नेह सद्भावना दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई।
सादड़ी का सन्त सम्मेलन उसी सद्भावना का पुण्य प्रतीक है, जिसमें श्रद्धेय सन्तगण ने शासनहित की प्रदीप्त भावना को लेकर जो महान् त्याग किया, वह आज ही नहीं, इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों की भाँति सदैव चमकता रहेगा। जिसकी पुण्य गाथाएँ अन्य सम्प्रदायों ने तथा राष्ट्रीय समाचार-पत्रों ने मुक्त कंठ से गायीं।
आज उन पुण्य पलों का स्मरण करते ही हृदय गद्गद् हो जाता है, मन-मयूर नाच उठता है, मुख-कमल खिल उठता है। क्या उत्तम भावना थी हमारे श्रद्धेय मुनिमंडल की वहां पर संघोन्नति की भावना से प्रेरित होकर ही उन्होंने "श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ की स्थापना की और उसमें अपनी पूरी-पूरी सम्प्रदायों का विलीनीकरण किया।
श्रमणसंघ को एक ही सूत्र में पिरोने के लिए एक समाचारी का निर्माण किया गया। किन्तु वहाँ अवकाश के क्षणों का अभाव होने के कारण समाचारी निर्माण का कार्य पूर्ण नहीं हो सका। सोजत और मीनासर सम्मेलन में उस अपूर्ण समाचारी तथा तत्कालीन समस्याओं पर विचार-विमर्श किया गया।
किन्तु अत्यन्त परिताप की बात है कि हमारा कदम जो दिन-प्रतिदिन प्रगति के पथ पर मुस्तैदी से आगे बढ़ना चाहिए था, यह रुक गया केवल रुका ही नहीं, कुछ पीछे भी खिसका मानस की जो उदार भावना संघोन्नति की ओर थी, वह अपनी वैयक्तिकता अथवा साम्प्रदायिकता को ही पल्लवित पुष्पित करने की ओर लग गई। अधिकार- लिप्सा शैतान की आँत की भाँति बढ़ने लगी। साधारण-सी बात को लेकर आचार्यश्री आत्माराम जी म. तथा उपाचार्य श्री गणेशीलाल जी में मतभेद हो गया और इन दोनों महापुरुषों के पारस्परिक विरुद्ध निर्णय हमारे सामने आए। इधर इन दोनों के बीच की प्रधानमंत्री की कड़ी की लड़ी पूर्व ही टूट चुकी थी। अतः दोनों महापुरुषों में मेल किस प्रकार बढ़ाया जाय। यह एक गम्भीर समस्या बन गई। दोनों महापुरुषों के विरोधी निर्णयों को पाकर सन्त समुदाय में भी सनसनी होने लगी। जिससे अधिकारी मुनियों का अनुशासन जिस रूप में रहना चाहिए था, उस रूप में न रह सका।
आज स्थिति इतनी विषम बन गई है कि कहीं पर भी किसी भी प्रकार की व्यवस्था भंग हो, श्रमण या श्रमणी साधना के मार्ग से च्युत हो जायें तो भी कौन कहे? किसका क्या अधिकार है?
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यह निर्णय करना भी विज्ञों के लिए एक महान् प्रश्न बन गया है। आज न भूतपूर्व साम्प्रदायिक व्यवस्था ही रही है और न वर्तमान अधिकारियों का योग्य अनुशासन ही हमारी दृष्टि से आचार शैथिल्य का यह प्रमुख कारण है। आचार्य और उपाचार्यश्री के चरणारविन्दों में मतभेद निवारणार्थ अनेक बार विनम्र प्रार्थनाएँ की गयीं और योजना भी प्रस्तुत की गयी पर खेद है कि उनमें से अभी तक एक भी सफल न हो सकी और मतभेद ने इतना उग्र रूप धारण किया कि पारस्परिक संबंध विच्छेद की स्थिति भी हमारे सामने आ गई।
हमारी यह हार्दिक भावना है कि संघ में संगठन अक्षुण्ण बना रहे। व्यक्ति अपने हित और मानापमान को महत्व न देकर संघ के हित को और सम्मान को महत्व दें। संघ महान् है, इस बात को समझकर संयमशुद्धि के साथ संघ के कल्याणार्थ सर्वस्व न्यौछावर करके श्रमणसंघ के अधिनायकों के एकछत्र शासन में त्यागीवर्ग संयम साधना, तप आराधना और मनोमन्थन कर ज्ञान-दर्शन- चारित्र की त्रिवेणी में अवगाहन करें।
किन्तु यह तभी संभव है जबकि संघ के सर्वोच्च अधिनायक आचार्यश्री तथा उपाचार्य श्री में मतभेद दूर होकर समरसता, सरसता उत्पन्न हो ।
एतदर्थ ही विजयनगर के प्रांगण में श्रमणसंघ की स्थिति पर विचार करने के लिए हम तीनों सन्त एकत्र हुए और समस्त स्थानकवासी समाज के अन्तर्मानस की भव्य भावनाओं को लक्ष्य में रखकर श्रद्धेय आचार्यश्री और उपाचार्यश्री के चरणारविन्दों में निवेदनार्थ एक प्रस्ताव रखने का भी निर्णय किया। किन्तु ता. ३०.११.६० को उदयपुर में उपाचार्यश्री ने उपाचार्य पद का त्याग करके स्वयं को श्रमण संघ से पृथक् घोषित किया, जिसे हम संघ के लिए हितकर नहीं मानते हैं। हमारी यह हार्दिक भावना है कि वे पुनः संघ हित और जिनशासन की उन्नति को ध्यान में रखकर उस पर गंभीरता से विचार करें और उलझी हुई समस्याओं को परस्पर विचार-विमर्श द्वारा या अन्य किसी माध्यम से हल करके संघ के श्रेय के भागी बनें।
हमारा यह दृढ़ मन्तव्य है कि वर्तमान में हमारी आचार व्यवस्था किन्हीं कारणों से शिथिल हो गई है। अतः उस पर कड़ा नियन्त्रण आवश्यक है क्योंकि आचारनिष्ठा में ही श्रमण संघ की प्रतिष्ठा है। हम चाहते हैं कि प्रमुख मुनिवरों के परामर्श से शिथिलाचार को आमूलचूल नष्ट करने के लिए दृढ़ कदम उठाया जाय। हम शिथिलाचार को हर प्रकार से दूर करने के लिए प्रस्तुत हैं। जब तक संघ में पारस्परिक मतभेद दूर होकर इसके लिए सुव्यवस्था न हो जाय तब तक अधिकारी मुनिवर अपने आश्रित श्रमण वर्ग की आधार वृद्धि पर पूर्ण ध्यान रखें। यदि कदाचित् किसी भी सन्त व सतीजन की मूलाचार में कोई स्खलना सुनाई दे तो तत्काल उसकी जाँच कर शुद्धि कर दी जाय ।
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