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इस चतुभंगी में उल्लिखित विकल्पों के अनुसार तृतीय भंग वाला सर्वोत्तम है। बहुधा देखा जाता है कि सामान्य मनुष्यों में ही नहीं, साधकों तक में प्रथम या द्वितीय भंग (विकल्प) पाया जाता है। कई साधक मिलने पर बहुत ही आत्मीयता दिखाते हैं, मीठी-मीठी बातें करते हैं, ऐसा व्यवहार करते हैं, मानो ये उन्हीं के ही अन्तरंग भिन्न हों; परन्तु उनके अन्तर में सामने वाले साधक की उन्नति और प्रगति को देखकर ईर्ष्या की आग प्रज्ज्वलित होती है, अथवा अपनी क्रियापात्रता का अहंकार का सर्प अन्तर में फुफकारता रहता है, अथवा साम्प्रदायिकता की सर्पिणी हृदय में आसन जमाये रहती है; वे दूसरे का उत्कर्ष, प्रसिद्धि, अन्य सम्प्रदाय की तरक्की सहन ही नहीं कर पाते, इसलिए वे किसी साधक के साथ में अव्वल तो रहना नहीं चाहते, रह भी लेंगे तो समय-समय पर बखेड़ा करके अशान्ति फैलाते रहते हैं, या अपनी उत्कृष्टता की डींग हांक कर दूसरों को नीचा दिखाने का प्लान करते रहते हैं, अर्थात् वे किसी न किसी तरह से सामने वाले पवित्र और सच्चे साधक साथ भी निश्चलता और निश्चलता, सरलता और सौजन्य के साथ रहना नहीं चाहते। ऐसे साधक के साथ रहना अच्छा नहीं होता। वे छिद्रान्वेषी बनकर सामने वाले साधक को हैरान करते रहते हैं। कई साधक प्रारम्भ में मिलने पर तो अच्छा नहीं दिखता। प्रकृति का कठोर और सहसा साथ में रहने वाले साधक पर दवाब डालने और रौब गाँठने का उपक्रम करता है, परन्तु जब उसके साथ रहते-रहते अधिक दिन हो जाते हैं तो वह सामने वाले के प्रति सहिष्णु बन जाता है। प्रत्येक व्यक्ति में कुछ न कुछ कमजोरी रहती है, प्रकृति कठोर साधक में भी कुछ आन्तरिक दुर्बलता के कारण वह सामने वाले साधक पर हावी नहीं हो पाता। फिर उसके साथ रहते-रहते कुछ स्नेह भाव भी हो जाता है, इसलिए वह अन्य साधक के प्रति कठोर नहीं हो पाता। इस कारण वह संवासभद्रक हो जाता है। फिर यदा-कदा पूर्व-संस्कारवश प्रकृति के कठोर हो जाते हैं, परन्तु फिर पश्चात्ताप करते हैं, कोमल भी हो जाते हैं। तृतीय भंगवर्ती साधक आपात और संवास दोनों प्रकार से भद्र (भले) सिद्ध होते हैं। वे जिस किसी साधक के साथ रहते हैं, उनके साथ अपने-आपको एडजस्ट कर लेते हैं, सहिष्णु बनकर अपनी | उदारता का परिचय देते हैं चारित्रिक श्रद्धाजनित या ज्ञानगत दुर्बलता देखकर ये अनदेखी तो नहीं करते थे सहसा साथ में रहने वाले साधक के प्रति कठोर नहीं होते, वे गम्भीर बनकर मन ही मन परमात्मा से उसकी उस दुर्बलता को निकालने के लिए प्रार्थना करते हैं, कभी अवसर देखकर बड़े प्रेम से मधुर शब्दों से एकान्त में, अकेले में उसे समझाते हैं, उसके लिए स्वयं त्याग तप करते हैं, उसके गुणों की प्रशंसा करके उसकी दुर्बलता पर कटाक्ष या हास्य न करके उससे कहते हैं-बन्धु ! उक्त दुर्गुण या दुर्बलता क्या तुम जैसे प्रतिभाशाली और विचक्षण साधक को शोभा देती है ? अगर उक्त दुर्गुण या दुर्बलता के बजाय तुम अमुक सद्गुण या शक्तिमत्ता को अपनाते तो कितना अच्छा रहता है ? तुम शक्तिपूर्वक इस दुर्गुण
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
या दुर्बलता को मिटाकर ही दम लेते तो कितना अच्छा लगता? अतः ऐसे साधक आपात और संवास, दोनों प्रकार से अच्छे और उत्कृष्ट होते हैं। परन्तु चौथे प्रकार के विकल्प वाले साधक दोनों प्रकार से अयोग्य सिद्ध होते हैं। वे न तो आपात-भद्र होते हैं, और न संवास में भले होते हैं।
प्रस्तुत चार प्रकार के साधकों में से जब हम स्व. उपाध्यायश्री पुष्करमुनिजी महाराज के जीवन को टटोलते हैं, तो उन्हें तीसरे विकल्प के अधिकारी मानने में कोई संकोच नहीं होता। उनके साथ रहने वाले हम जैसे अन्य उपसम्प्रदाय के या अन्य ग्रुप के साधक उसकी प्रकृति की भद्रता और मिलनसारी देखकर उनके साथ रहने में अपना गौरव समझते थे। जब उनकी वात्सल्य दृष्टि किसी अपने ग्रुप के या दूसरे ग्रुप के अथवा अपने सम्प्रदाय उपसम्प्रदाय के या दूसरे सम्प्रदाय - उपसम्प्रदाय के साधक पर पड़ती तो सामने वाला साधक चाहे विरोधी मान्यता का हो, चाहे विद्रोही हो, चाहे स्वच्छन्दी हो, उनके पास रहने तथा उनसे मिलने में किसी प्रकार की मानसिक कठिनाई अनुभव नहीं करता, वह कायल होकर पानी-पानी हो जाता, नम्र बन जाता।
घटना वि. सं. २०३६ की है। उस वर्ष मेरा चातुर्मास भी सिकन्दराबाद में पू. आचार्य श्री आनन्दऋषि जी म. के साथ में था। उस समय उपाध्यायश्री पुष्करमुनिजी महाराज भी अपनी शिष्य मण्डली सहित उस चीमासे में सिकन्दराबाद में साथ में ही थे सब मिला कर कुल ३९ साधु-साध्वी थे। इतने अधिक साध- साध्वियों का चार मास तक एक जगह रहने पर कभी न कभी किसी बात पर संघर्ष होना असम्भव नहीं, फिर भी स्व. उपाध्यायश्री की प्रकृति इतनी मिलनसार और कोमल थी कि संघर्ष का मौका ही नहीं आने देते थे। हम तीनों ग्रुपों के भिक्षाचरी करने वाले साधु साथ में ही जाते और अपनी-अपनी प्रकृति, स्वास्थ्य और रुचि के अनुकूल आहार गृहस्थों के यहाँ से लाते और परस्पर प्रेम से सभी साधुओं को वितरण कर देते थे। मैं अपनी प्रकृति, रुचि के अनुसार सादा भोजन लाता, उससे स्व. उपाध्याय श्री को बहुत प्रसन्नता होती । वे अक्सर कहा करते थे- "मगनजी ! तुम्हारी लाई गोचरी मुझे बहुत पसंद है। मैं तुम्हारी लाई हुई भिक्षा में से अवश्य ही थोड़ा-सा लूंगा।" इस प्रकार मेरे प्रति उनका वात्सल्य भाव सदैव रहता था। मैंने उस चातुर्मास में ३१ उपवास का तपश्चरण किया था। वे मेरी तपस्या के दौरान मेरी सेवा का बहुत ध्यान रखते थे साथ ही वे इस तपस्या से अत्यन्त प्रभावित थे कि उन्होंने मेरी तपस्या के पूर के दिन उत्साहपूर्वक बहुत ही शीघ्र मेरी प्रशंसा में एक स्तवन बना कर गाया, उसमें उन्होंने अपनी भावना प्रदर्शित की कि इस तपस्या में मुझे भी भागीदारी (हिस्सा) प्राप्त हो। वे स्वयं भी यदाकदा स्वाध्याय, ध्यान, जप, प्रतिसंलीनता, उपवास, एकाशन, आयम्बिल आदि बाह्य आभ्यन्तर तप किया करते थे।
यही कारण था कि वे कभी-कभी आध्यात्मिक तेजोमुद्रा में किसी को जो भी कह दिया करते थे वह उसी रूप में घटित हो जाता था, यह भी मैंने देखा और अनुभव भी किया।
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