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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । "मेरी इच्छा तो यही थी कि आज ही तुम मेरे नगर को "यह कौन मलिन वेश वाले डोम-दम्पत्ति आ गये हैं ? इन्हें देखो।" परिव्राजक ने कहा-“पर तुम मेरे भक्त हो। तुम्हारी इच्छा किसने निमंत्रण दिया है ? जाओ, इन्हें बाहर निकाल दो।"
भी मैं नहीं टाल सकता। आज यहीं भोजन किये लेता हूँ। पर कल 180
। सेवकों ने स्वामी की आज्ञा का पालन किया। जैसे ही उन्होंने तुम अपने परिवार और परिकर सहित मेरे नगर में अवश्य बोटानिकोबार
डोम-दम्पत्ति को बाहर निकाला कि इन्द्रजाल के समान सब गायब! आना।"
न वहाँ उद्यान थे, न जलाशय और न भवन; रह गया सिर्फ राजा की आज्ञा से भोजन लग गया। परिव्राजक और राजा ने । भयानक वन। परिव्राजक की फूली हुई छाती पिचक गई। उसका भोजन किया। भोजन के बाद परिव्राजक चला गया।
मुँह उतर गया। खिले हुए चेहरे को निराशा का पाला मार गया। दूसरे दिन प्रातःकाल ही परिव्राजक ने विद्या के प्रभाव से नये राजा ने परिव्राजक की ओर देखा तो उसके मुख पर घोर PPP नगर का निर्माण कर दिया। राजा धनसेन अपने परिवार-परिकर निराशा थी; पूछा
सहित आया तो उस नये और बहुत ही सुन्दर नगर को देखकर यह क्या हुआ महाराज? क्या तपस्या में कोई कमी रह दंग रह गया; बहुत प्रभावित हुआ। अपनी रानी धनश्री से बोला- गई?"
"देखा, मेरे गुरु का प्रभाव ! कैसी अद्भुत विद्याएँ हैं इनके मन की निराशा जबान पर आ गई। परिव्राजक के मुख से के पास। ऐसी विद्याएँ किसी अन्य तपस्वी के पास नहीं हो सकतीं।" सच्ची बात निकली
राजा ने यह बात रानी धनश्री को प्रभावित करने के लिए । “राजन् ! मैं कृतघ्न हूँ। आपने अभी जो डोम-दम्पत्ति देखे थे,
कही थी। लेकिन दृढ़ सम्यक्त्वी कभी चमत्कारों से प्रभावित नहीं मैंने उन्हीं से यह नगर-निर्माण की विद्या सीखी थी। आपके कारण Do होते, वे तो ऐसे चमत्कारों को मदारियों के खेल ही समझते हैं।
रानी धनश्री भी प्रभावित नहीं हुई। किन्तु उसने पति को कोई जबकि विद्या-प्रदाता गुरु को नमस्कार करना मेरा प्रथम कर्तव्य जवाब देना उचित न समझा, चुप ही रही।
था। राजा-रानी समस्त परिवार-परिकर सहित नगरी को घूम-घूम इतने से ही राजा सब कुछ समझ गया। उसने देखा तो कर देखने लगे। साथ में परिव्राजक सुप्रतिष्ठ भी था। राजा को डोम-दम्पत्ति मंद-मंद कदमों से चले जा रहे थे। शीघ्र गति से एक-एक उद्यान-जलाशय आदि दिखाता। राजा उसकी प्रशंसा करता चलकर राजा उनके पास पहुँचा, प्रणाम किया और नगर-निर्माण और परिव्राजक खुशी में झूम उठता, गर्व से फूल उठता, उसकी की विद्या सीखने की इच्छा प्रगट की। डोम-दम्पत्ति ने अपनी शर्त छाती गजभर चौड़ी हो जाती।
बताकर राजा धनसेन को विद्या सिखा दी। राजा बहुत प्रसन्न हुआ। घूमते-घूमते सभी लोग मुख्य नगर-द्वार पर आये। वहाँ
अपने घर लौट आया। परिव्राजक को अति मलिन वेश में डोम दम्पत्ति खड़े दिखाई दिये। कृतघ्नता ऐसा अवगुण है, जिसके कारण सभी सद्गुणों पर उन्हें देखते ही परिव्राजक सकपका गया। सबके सामने उनको पानी फिर जाता है। परिव्राजक सुप्रतिष्ठ की कृतघ्नता का समाचार नमस्कार कैसे करे? उसने तो यही प्रचारित किया था कि 'यह सारे नगर में फैल गया। यद्यपि अब भी वह जल-स्तम्भिनी विद्या के उपलब्धि मुझे अपनी तपस्या से प्राप्त हुई है।' डोम दम्पत्ति को बल से यमुना की बीच धारा में बैठता लेकिन लोगों की श्रद्धा नमस्कार करने से तो उसकी पोल खल जाती। लोगों को ज्ञात हो उसके प्रति नहीं रही। राजा की भक्ति भी समाप्त हो गई। वह समझ जाता कि डोम-दम्पत्ति की कृपा से ही परिव्राजक को यह विशिष्ट गया कि परिव्राजक ढोंगी है, पाखण्डी है, कृतघ्न है। कतघ्न का तो विद्या प्राप्त हुई है। डोम दम्पत्ति इसके गुरु हैं। और फिर उसका मुँह देखना भी पाप है, फिर श्रद्धा-भक्ति की तो बात ही क्या ? सर्वत्र अपयश होता।
परिव्राजक की प्रतिष्ठा समाप्त हो गई। लोगों की निगाहें बदल अपने अपयश के विचार मात्र से परिव्राजक सुप्रतिष्ठ घबड़ा गईं, उनकी निगाहों में उसके लिए तिरस्कार झलकने लगा। उसकी गया, उसे पसीना छूट आया। उसकी स्थिति बड़ी विचित्र हो गई
पोल खुल चुकी थी। नगर-वासियों की तिरस्कार भरी निगाहों को थी। इधर गिरो तो कूआ, उधर गिरो तो खाई-मरण दोनों ही
वह सह न सका। कहीं दूसरे स्थान पर चला गया। तरफ। यदि डोम दम्पत्ति को प्रणाम करता है तो भी अपयश होता एक दिन राजा धनसेन अपनी राजसभा में बैठा था। उसकी है और प्रणाम नहीं करता है तो यह अद्भुत नगर मायानगरी के राजसभा खचाखच भरी हुई थी। सभासद तो थे ही, बाहर के समान क्षण मात्र में विलुप्त होता है।
विशिष्ट अतिथि भी आये हुए थे। हास्यविनोद चल रहा था। परिव्राजक का जाति-अभिमान जाग उठा। उसने क्षणभर में ही इतने में ही वे डोम दम्पत्ति आये। वे द्वार के बाहर ही खड़े थे आवेश में आकर निर्णय लिया। सेवकों से बोला
कि राजा धनसेन की दृष्टि उन पर पड़ गई। वह तुरन्त अपने
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