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| वागू देवता का दिव्य रूप
३१९ ।
महेश्वर ने दृढ़ता के स्वर में कहा
"प्रभो! अरुणदेव मेरा जामाता तथा देयिणी मेरी पुत्री है। पूर्व “तुम लोग नहीं जानते कि यह कौन है। यह मेरा मित्र
जन्म में इन्होंने क्या कठोर वचन कहे थे, जिसके कारण इन्होंने इस अरुणदेव ताम्रलिप्ति नगरी के व्यापारी कुमारदेव का पुत्र और
जन्म में दुःख भोगा?" तुम्हारे नगर के प्रसिद्ध श्रेष्ठी जसादित्य का जामाता तथा देयिणी राजा तथा महेश्वर आदि ने भी मुनि की ओर जिज्ञासा भरी का पति है। क्या पति अपनी पत्नी के हाथ काटकर कंगन दृष्टि से देखा। सबको उत्सुक देख केवली मुनि चन्द्रधवल ने देयिणी चुरायेगा?"
और अरुणदेव की ओर देखकर कहामहेश्वर की बात सुनकर सभी चकरा गए। सिपाहियों की “शुभ आत्माओ! देयिणी और अरुणदेव पूर्व जन्म में माता हालत खराब हो गई। उन्होंने सोचा कि इसकी बात राजा के कानों और पुत्र थे। पुत्र के रूप में अरुणदेव ने देयिणी से कठोर वचन तक पहुँच गई तो राजा हमें कठोर दण्ड देगा। राजा कहेगा कि कहे, चुभने वाली बातें कहीं। क्रोधवश देयिणी ने भी कठोर बातें तुमने छान-बीन किये बिना एक निरपराध व्यक्ति को क्यों पकड़ा।' पुत्र अरुणदेव से कहीं। उसी के परिणामस्वरूप इस जन्म में इन्होंने यह सोच सिपाही लोग महेश्वर को पत्थर मारने लगे। लेकिन कष्ट भोगे। उड़ते-उड़ते बात जसादित्य के कानों तक पहुँच गई। उसने राजा से
कठोर वचन कहने का मूल कारण क्रोध ही होता है। यह क्रोध कहा अरुणदेव को मुक्त कराया तथा देयिणी को साथ ले शूली
ही मानव का प्रबल शत्रु है। क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार स्थल पर आया। राजा भी वहीं पहुँच गया।
कषायों का त्याग करके ही प्राणी मोक्ष की ओर बढ़ सकता है। इन इसी समय आकाश मार्ग से केवली मुनि चन्द्रधवल वहाँ आये। चारों में क्रोध बहुत दुखदायी है। इसलिए यदि क्रोध का त्याग कर RT देवों ने वहाँ कमलासन की रचना की। मुनि चन्द्रधवल कमलासन
शम को अपनाओगे तो वाणी से शीतल और मृदु वचन ही Palanga को शोभित करने लगे। राजा, श्रेष्ठी जसादित्य और देयिणी,
निकलेंगे। अरुणदेव-महेश्वर आदि सब ने मुनि की वन्दना की और अपने-अपने आसन पर बैठ गए। मुनि ने सबको सम्बोधित कर
- इसके बाद मुनि ने देयिणी और अरुणदेव के पूर्वजन्म की कथा उपदेश देना शुरू किया
सुनाना प्रारम्भ किया। उपस्थित धर्मप्रेमी ध्यान से सुनने लगे।
x “हे भव्य आत्माओ! प्रत्यक्ष रूप से दीखने वाली साधारण सी नींद तो रात भर में पूरी हो जाती है, पर यह मोह निद्रा प्राणी को बहुत पहले की बात है। इस भरत क्षेत्र में वर्धमानपुर नामक जीवन भर घेरे रहती है। अतः मोहनिद्रा का त्याग करो और धर्म । एक नगर है। वहाँ सिद्धड़ नाम का एक कुलपुत्र रहता था। सिद्धड़ को अपनाओ, क्योंकि धर्म ही वह नाव है, जिस पर बैठ कर की स्त्री का नाम चन्द्रा था। सर्ग नाम का सिद्धड़ का पुत्र था। तीन संसार-सागर से पार हुआ जा सकता है। धर्म की उत्पत्ति मनुष्य के प्राणियों का छोटा-सा परिवार था; फिर भी सिद्धड़ दो समय की हृदय से होती है, इसलिए मानवता, मनुष्यता ही सार है।
रोटी नहीं जुटा पाता था। कहावत है-'कर्महीन खेती करै, बैल मरै "हे प्राणियो! प्राणघातादि का त्याग करो। कभी किसी से कठोर
सूखा परै।' भाग्यहीन को कहीं भी सफलता नहीं मिलती। ऐसा वचन मत कहो। क्रोध की बात तो दूर रही, यदि हँसी-मजाक में
व्यक्ति जब खेती करता है तो उसके भाग्य- दोष से या तो सूखा भी कठोर वचन कहे जाते हैं तो दुस्सह कर्मबन्ध का अर्जन होता ।
पड़ जाती है, या बैल मर जाता है। सिद्धड़ जो भी कार्य करता, उसे असफलता ही मिलती। सोने को भी छूता तो मिट्टी हो जाता।
ये तीनों प्राणी जहाँ भी जाते, मेहनत-मजदूरी करते, पर अपना पेट "हे आत्माओ! पूर्वजन्म में कठोर वचन कहने के कारण ही
नहीं भर पाते थे। एक बार धूप से व्याकुल एक भाग्यहीन व्यक्ति अरुणदेव और देयिणी ने दुस्सह कर्म बाँधे और इस जन्म में कष्ट
छाया के लिए एक बेल के वृक्ष के नीचे खड़ा हुआ। उसके खड़े भोगे।"
होते ही एक बेल उसके सिर पर आ पड़ा, बेचारा हाय-हाय करता अरुणदेव और देयिणी का नाम सुनते ही सब चौंक गए। हुआ वहाँ से भागा। यही हाल सिद्धड़ का था। अपना पेट भरने के
0000000 देयिणी ने अपने कटे हुए हाथों की तरफ देखकर सोचा, 'मैंने । लिए सिद्धड़ चन्द्रा और सर्ग जाने क्या-क्या करते थे, फिर भी पेट Doo पूर्वजन्म में अपने पति से ऐसे क्या कठोर वचन कहे थे, जिसके नहीं भर पाते थे। कारण मुझे यह दारुण दुख भोगना पड़ा।' अरुणदेव ने भी विचार
पेट भरने की आशा में भटकते-भटकते एक दिन सिद्धड़ की किया-'मुनि की वाणी कभी असत्य नहीं हो सकती। अवश्य ही
मृत्यु हो गई। मृत्यु क्या हुई, सिद्धड़ सुख की नींद सो गया। लेकिन पूर्वभव में मैंने देयिणी से मर्म वचन कहकर दुखों की गठरी बाँधी
चन्द्रा और सर्ग पर तो दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा। चन्द्रा और
सर्ग पेट की चिन्ता में दर-दर भटकने लगे। चन्द्रा ने अब दासीवृत्ति मुनि की रहस्य भरी वाणी सुनकर श्रेष्ठी जसादित्य ने कहा- अपना ली। वह सेठ-साहूकारों के घरों का काम करके कुछ प्राप्त
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