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| वाग् देवता का दिव्य रूप
३५३ रखनी है कि जप करने का स्थान पवित्र, शुद्ध एवं स्वच्छ हो, वहां कवि ने जप का अन्तस्तल खोल कर रख दिया है। जप के किसी प्रकार की गन्दगी न हो, जीवजन्तु, कीड़े-मकोड़े, मक्खी- समय किसी प्रकार की दुविधा, दुश्चिन्ता, अशांति, बेचैनी, स्पृहा, मच्छर आदि का उपद्रव या कोलाहल न हो, जपस्थल के एकदम फलाकांक्षा, लौकिक वांछा, ईर्ष्या, द्वेषभावना आदि नहीं हो तो जप निकट या एकदम ऊपर शौचालय (लेट्रीन) या मूत्रालय न हो, शांति, शुभ भावनाओं, समर्पण वृत्ति, दृढ़श्रद्धा एवं सर्वतापहारी, हड्डी या चमड़े की कोई चीज वहाँ न रखी जाए। जप करने वाला मानस में तन्मयता, एकाग्रता और आराध्य के प्रति तल्लीनता लाने व्यक्ति मद्य, मांस, व्यभिचार, हत्या, दंगा, मारपीट, आगजनी, वाला है। जप से सम्यग्ज्ञान-दर्शन, आत्मिक आनंद और आत्मशक्ति जूआ, चोरी आदि से बिल्कुल दूर रहे। तथा जप करने का स्थान, । पर आए आवरण दूर होकर इनका जागरण हो जाता है। गंगा की व्यक्ति, दिशा (पूर्व या उत्तर), माला, समय, आसन, वस्त्र आदि जो तरंगों के समान जप से उद्भूत तरंगें दूर-दूर तक फैलकर
Fe निर्धारित लिये हों, वे ही मंत्र की सिद्धि तक रखे जाएं।
वातावरण को शुद्ध बनाती है।
Po%2009 जप के साथ लक्ष्य के प्रति तन्मयता, भावना एवं तीव्रता हो । नाम जप के साथ उत्कट भावना ही जप का प्राण _कई भक्तिपरायण व्यक्ति अपने इष्टदेव पंचपरमेष्ठी, वीतराग किन्तु जप सिर्फ अक्षरों को दुहराते रहने की क्रिया तक ही जीवनमुक्त अरिहंत या निरंजन निराकार सिद्ध परमात्मा के जप को । सीमित नहीं रहना चाहिए। जप के मंत्राक्षर अन्तर को छूने चाहिए, ही अभीष्ट मानते हैं। इष्ट देव का जाप करने से उनका सान्निध्य मंत्र के अर्थ के साथ अपनी पवित्र भावना और श्रद्धा जुड़नी
और सामीप्य प्राप्त होता है। ऐसे दिव्यात्मा भी कभी-कभी प्रत्यक्ष चाहिए। यही जप का प्राण है। भावना का आरोपण अपने इष्टप्रभु दर्शन देते हैं और कार्यसिद्धि में सहायक होते हैं। परमात्मा या या परमेष्ठी के नाम या रूप के प्रति अन्यन्य भक्तिभाव या परमात्मपद की प्राप्ति ही मुमुक्षु साधक के जीवन का लक्ष्य होना तादाम्यभाव के साथ होना चाहिए। निरंजन-निराकार परमात्मा में चाहिए। ऐसे मुमुक्षु जपकर्ता को एकमात्र निरंजन निराकार परमात्मा साथ अपनी शुद्ध आत्मा के गुणों की तुलना करनी चाहिए। जप के के प्रति पूर्णश्रद्धा रखकर जप प्रारंभ करने से पूर्व उन्हें विधिपूर्वक प्रेम और आत्मभाव का इतना सघन समावेश होना चाहिए कि वंदना-नमस्कार करना चाहिए। उस जपकर्ता पुण्यात्मा में परमात्मा उनके दर्शन या मिलन की, उनके प्रति एकता या आत्मीयता की के प्रति तीव्र तन्मयता, तल्लीनता, एकाग्रता एवं पिपासा होनी यथा समर्पण की असाधारण उत्कण्ठा हो। अपनी आत्मा में जो चाहिए। ऐसे शुद्ध आत्मा से मिलन या तादात्म्य-पिपासा जितनी तीव्र कमियां और खामियां हों, उन्हें दूर करने की प्रबल भावना/तमन्ना होगी, उसी अनुपात में मिलन की संभावना निकट आएगी। जाप । होनी चाहिए। भावना का सम्पुट जितना उत्कट एवं गहन होगा, जप या नामस्मरण जितनी समर्पणवृत्ति, शरणागति एवं भक्ति, प्रीति उतना ही शीघ्र नाम-स्मरण का उद्देश्य पूर्ण एवं सफल होगा। के साथ किया जाएगा, उतनी ही शीघ्र सफलता मिलनी संभव है। अन्यथा तोते की तरह केवल शब्द रटने या ग्रामोफोन की तरह इसीलिए भक्तिवाद के आचार्य ने कहा-"जपात् सिद्धिः । केवल शब्दोच्चारण से न तो भक्त की भावना झंकृत होती है और जपात् सिद्धिः जपात् सिद्धिर्न संशयः"-जप से सिद्धि होती है, जप । न ही भगवान् के समक्ष हृदय खोलकर आत्म निवेदन बनता है। से सिद्धि होती है, जप से अवश्य ही सिद्धि होती है, इसमें कोई संशय नहीं है। अतः जपकर्ता में जप के फल के प्रति आशंका या
अजपाजप-स्वरूप और प्रक्रिया संशय नहीं होना चाहिए।
प्राणायाम की ही एक विधा, जो विशुद्ध आध्यात्मिक है, जिसे
अजपाजप "सोऽहं साधना' या" हंसयोग कहा जाता है। विपश्यना जप का अन्तस्तल एवं माहात्म्य
ध्यान एवं प्रेक्षा ध्यान के साथ जप काफी सुसंगत है। किन्तु प्रेक्षा जप का माहात्म्य बताते हुए कवि ने कहा है
ध्यान एवं विपश्यना ध्यान में और इसमें थोड़ा सा अन्तर है। प्रेक्षा स्थिर मन से सारे जाप करो,
ध्यान या विपश्यना ध्यान में प्रारंभ में केवल श्वास के आवागमन भव-भव का संचित ताप हरो। ध्रुव ॥
को देखते रहने का अभ्यास है, परन्तु अजपाजप में पहले स्थिर यह जाप शांति का दाता है, दुविधा को दूर भगाता है।
शरीर और शांत चित्त होकर श्वास के आवागमन की क्रिया प्रारंभ मानस का सब सन्ताप हरो ॥ स्थिर.॥१॥
की जाती है। सांस लेते समय “सो" और छोड़ते समय “हम्" की जप से सब काम सुधरते हैं, दिल में शुभ भाव उभरते हैं।
ध्वनिश्रवण पर चित्त को एकाग्र किया जाता है। चेतन से सदा मिलाप करो ॥ स्थिर.॥२॥
१. देखें प्रपंचतंत्र में सोऽहम् जप की साधना का विधानजब जप का दीपक जलता है, तब अन्तर का सुख फलता है।
देहो देवालयः प्रोक्तः जीवो देवः सदाशिवः (सनातनः) त्यजेदज्ञान-निर्माल्यं करणी से अपने आप तरो ॥ स्थिर.॥३॥
सोऽहं भावेन पूजयेत्॥ गर अन्तर का मन चंगा है, यह जाप पावनी गंगा है।
देहरूपी देवालय में जीव रूपी शुद्धआत्मा (शिव) सदैव विराजमान हैं। तरंगों से “सुमेरू" नाप करो ॥ स्थिर.॥४॥
अज्ञान-निर्माल्य छोड़कर सोऽहं भाव से इसी की पूजा करें।
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