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। वाग् देवता का दिव्य रूप
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ब्रह्मचर्य विज्ञान : एक समीक्षात्मक अध्ययन
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-डॉ. तेजसिंह गौड़ (उज्जैन) ब्रह्मचर्य एक साधना है और उस साधना के पीछे पूरा विज्ञान है। मनोविज्ञान एवं शरीर विज्ञान के विविध पहलुओं को दृष्टिगत रखते हुए ब्रह्मचर्य साधना के सर्वांगीण स्वरूप को उद्घाटित करने वाली यह पुस्तक अपने विषय की सर्वोत्कृष्ट पुस्तक मानी गई है। इसमें श्रद्धेय गुरुदेव उपाध्यायश्री के प्रवचन, चिन्तन, स्वानुभव, संस्मरण डायरी के नोट्स तथा व्यापक अध्ययन के आधार पर लिखित विवरण सबको एक सुन्दर गुलदस्ते का स्वरूप प्रदान किया है विद्वान् मनीषी आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी ने। पुस्तक पर समीक्षात्मक चिन्तन प्रस्तुत कर रहे हैं। प्रसिद्ध विद्वान डॉ. तेजसिंह गौड़।
-सम्पादक
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ब्रह्मचर्य को भारतीय साधना पद्धति में विशेष महत्व दिया गया / गति करना, चर्चा करना या चलना है। अर्थात् ब्रह्म = आत्मभाव है। ब्रह्मचर्य भारतवर्ष के प्राचीन ऋषि-मुनियों की एक अद्भुत, की ओर चर्या करना, गति करना ब्रह्मचर्य है। शुद्ध आत्मभाव ही अनुपम एवं अमूल्य आध्यात्मिक देन है। ब्रह्मचर्य की जितनी ब्रह्म अर्थात् परमात्मा है, उसकी ओर बढ़ना यानि आत्मभाव में अनुभूति, साधना हमारे देश भारतवर्ष में हुई है, उतनी शायद ही रमण करना ब्रह्मचर्य है। अथवा परमात्मा में विचरण करना, अथवा विश्व के किसी देश में हुई हो। ब्रह्मचर्य मानव शरीर और आत्मा विद्याध्ययन या वेदाध्ययन में विचरण करना अथवा वेदाध्ययन का का तेजःस्रोत है। यदि समस्त शक्तियों का मूल स्रोत ब्रह्मचर्य को कहें आचरणीय कर्म ब्रह्मचर्य है। तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ब्रह्मचर्य मनुष्य के तन, मन और आत्मा
ब्रह्म शब्द का अर्थ निर्मल ज्ञान स्वरूप आत्मा है, उसमें लीन को सशक्त, सक्षम, स्थिर और सुदृढ़ बनाता है, जिसका तन निर्बल होनादानी
होना ब्रह्मचर्य है। भगवती आराधना के अनुसार "जीव ब्रह्म है, है, मन निर्बल है, आत्मा निर्बल है, वह न तो आध्यात्मिक साधना
जीव ही में जो पर देह सेवन रहित चर्या होती है, उसे ब्रह्मचर्य का श्रीगणेश ही कर सकता है और न ही आपत्तियों में आगे बढ़ने । समयो।" का साहस, ऐसा व्यक्ति आत्म स्वरूप का साक्षात्कार भी नहीं कर सकता है, यथा- नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः।
ब्रह्मचर्य उपलब्ध अर्थों के परिप्रेक्ष्य में उपाध्याय प्रवर श्री
पुष्कर मुनि जी म. सा. ने लिखा-"जिस आचरण से आत्म चिन्तन आचार्य हेमचन्द्र ने ब्रह्मचर्य का लाभ बताते हुए कहा है :
हो, आत्मा अपने आपको पहचान सके और अपने स्वभाव में रमण "चिरायुषः सुसंस्थाना दृढ़ संहनना नराः।
कर सके, उस आचरण का नाम ब्रह्मचर्य है।" तेजस्विनो महावीर्या भवेयु ब्रह्मचर्यतः॥"
ब्रह्मचर्य के उपर्युक्त अर्थ से स्पष्ट हो जाता है कि ब्रह्मचर्य का ब्रह्मचर्य से मानव चिरायु होते हैं, उनके शरीर का संस्थान } अर्थ आत्मभाव में रमण करना है। इसके पालन से आध्यात्मिक मजबूत हो जाता है, उनके शरीर का सहनन भी सुदृढ़ हो जाता है, साधना की ओर अग्रसर हो सकते हैं। तब यहाँ सहज ही प्रश्न ब्रह्मचर्य के साधक तेजस्वी एवं परम वीर्यवान् होते हैं।
उपस्थित होता है कि इसका पालन अथवा साधना कैसे की जावे? जप, तप या आध्यात्मिक साधना आदि में सशक्त तन एवं
भगवान् महावीर ने ब्रह्मचर्य साधना के लिए दो मार्ग बताएँ हैंसुदृढ़ स्थिर मन का होना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है और १. आंशिक ब्रह्मचर्य और २. पूर्ण ब्रह्मचर्य। जो व्यक्ति तन-मन की सशक्तता के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करना अनिवार्य सांसारिकता से ऊपर उठकर पूर्ण ब्रह्मचर्य का मन, वचन और है। क्योंकि कमजोर तन और मन के द्वारा साधना संभव नहीं हो काया से पालन कर सकता है, उसे उसका पालन करना ही चाहिए। सकती। मन भटका तो तन अटका। इस अटकाव-भटकाव में ऐसा करने से उसका मार्ग प्रशस्त होगा। मन, वचन और काया से साधना किस प्रकार संभव हो सकती है। ब्रह्मचर्य के परिपक्व } संबंधित जो मैथुन हैं, वे दक्ष संहिता के अनुसार इस प्रकार हैं :अभ्यास से मानव तन और मन दोनों ही इतने सशक्त हो जाते हैं
3000 स्मरणं कीर्तनं केलिः प्रेक्षणं गुह्य-भाषणम्,
Paroo कि फिर अटकने/भटकने/आसक्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता।।
संकल्पोऽध्यवसायश्च, क्रियानिष्पत्तिरेव च। ब्रह्मचर्य की इस महत्ता को देखते हुए हमारे लिए यह एतन्मैथुनमष्टांग प्रवदन्ति मनीषिणः
POE आवश्यक हो जाता है कि हम उसके अर्थादि को समझें। सामान्यतः
विपरीतं ब्रह्मचर्य मेतदेवाष्ट-लक्षणम्॥ ब्रह्मचर्य का अर्थ मैथुनवृत्ति का त्याग कर सकते हैं। इसे दूसरे शब्दों में वीर्यरक्षा भी कह सकते हैं। यदि दूसरे शब्द पर ध्यान देते
स्त्री या पूर्व भुक्त भोगों का स्मरण, स्त्रियों के रूप आदि का हैं तो इसकी व्यापकता का बोध होता है। ब्रह्मचर्य शब्द ब्रह्म और
वर्णन, उनके साथ क्रीड़ा करना, उन्हें राग दृष्टि से देखना, एकान्त चर्य से मिलकर बना है। ब्रह्म का अर्थ आत्मा है और चर्य का अर्थ १. ब्रह्मचर्य विज्ञान, पृष्ठ १३८
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