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वाग् देवता का दिव्य रूप
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अनिवार्यता, ३. ब्रह्मचर्य की प्रधानता, ४. ब्रह्मचर्य का अमोघ श्रद्धेय उपाध्यायश्री ने ब्रह्मचर्य की उपयोगिता प्रस्थापित करने प्रभाव, ५. ब्रह्मचर्य का माहात्म्य, ६. ब्रह्मचर्य से विविध लाभ और का प्रयास किया, उसके पीछे वर्तमान युग में बढ़ती कामप्रवृत्ति ७. ब्रह्मचर्य की उपलब्धियाँ। इन सातों प्रवचनों को सैद्धांतिक प्रमुख है। फिर इस वर्तमान भोगवादी युग में यदि काम प्रवृत्ति पर पृष्ठभूमि के अन्तर्गत रखा गया है।
अंकुश नहीं लगाया गया तो इसका अंत कहाँ और कैसा होगा, द्वितीय खण्ड-द्वितीय खण्ड को स्वरूपदर्शन नाम दिया गया है
इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इसलिए वर्तमान युग में और इस खण्ड में छः प्रवचन हैं-१. ब्रह्मचर्य : एक शब्दः अनेक
ब्रह्मचर्य का पालन अधिक आवश्यक और अनिवार्य है। उन्होंने अर्थ, २. इन्द्रिय संयम : ब्रह्मचर्य का प्रवेश द्वार, ३.
अपने प्रवचन में यह भी स्पष्ट किया है कि ब्रह्मचर्य कोरा आदर्श ब्रह्मचर्य-साधना का मंत्र : मनोनिग्रह, ४. वीर्यरक्षा और ब्रह्मचर्य,
नहीं है। यह एक यथार्थ सत्य है और लोभी लोगों द्वारा भी इसकी ५. ब्रह्मचर्य और शील और ६. ब्रह्मचर्य बनाम मैथुन विरमण।
अपेक्षा की गई है। ब्रह्मचर्य पालन के संबंध में उनका स्पष्ट मत है
कि ब्रह्मचर्य पालन दुष्कर अवश्य हो सकता है किन्तु असाध्य नहीं तृतीय खण्ड-तृतीय खण्ड को साधना दर्शन शीर्षक दिया गया
है। ब्रह्मचर्य व्रत के पालन के लिए दृढ़ इच्छा शक्ति का होना है। इस पुस्तक का यह सबसे समृद्ध खण्ड है। इसमें चौदह प्रवचन
आवश्यक है। वास्तव में यहाँ दृष्टिकोण का भी प्रभाव पड़ता है। संग्रहीत हैं। १. ब्रह्मचर्य साधना : उद्देश्य और मार्ग, २. ब्रह्मचर्य-साधना : दृढ़ता के छः सूत्र, ३. ब्रह्मचर्य-साधना का
नारी को भोग्या मानने वाले व्यक्ति के विचारों में कामुकता ही आध्यात्मिक पक्ष, ४. ब्रह्मचर्य-साधना : विभिन्न दृष्टियों से, ५..
कामुकता रहेगी। इसके विपरीत यदि विचारों में नारी के प्रति यौगिक प्रक्रियाओं से ब्रह्मचर्य की सहज साधना, ६. मनोविज्ञान एवं
मातृभाव अथवा भगिनी भाव आ जाते हैं तो वहाँ काम-विकार शरीर विज्ञान के अनुसार ब्रह्मचर्य-साधना, ७. इन्द्रिय संयम के
और विचार दोनों ही समाप्त हो जाते हैं और पवित्र विचारों की अनुभूत नुस्खे, ८. काम-विजय के अनुभूत उपाय, ९. ब्रह्मचर्य
सरिता प्रवाहित होने लगती है। इसीलिए ब्रह्मचर्य पालन में साधना एवं योगाभ्यास, १०. ब्रह्मचर्य साधना के चार स्तर, ११.
मानसिकता का प्रमुख हाथ रहता है। ब्रह्मचर्य-सुरक्षा के मूलमंत्र : नववाड़, १२. वीर्यरक्षा के ठोस उपाय, __ आध्यात्मिक दृष्टिकोण से ब्रह्मचर्य का अत्यधिक महत्व है। १३. नारी जाति और ब्रह्मचर्य एवं १४. ब्रह्मचर्य साधना : विशुद्धि परमात्मदर्शन के लिए ब्रह्मचर्य अनिवार्य है। यहाँ तक कि सभी व्रतों और जाग्रति।
के लिए भी ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य है। ब्रह्मचर्य पालन से इस प्रकार इस प्रवचन संग्रह में कुल मिलाकर सत्ताइस प्रवचन
मनोबल दृढ़ होता है और दृढ़ इच्छा-शक्ति का आध्यात्मिक साधना निबन्धाकार रूप में संग्रहीत हैं। यह अत्यन्त आल्हादकारी बात है
में विशिष्ट स्थान है। इसलिए सभी प्रकार की साधना और गुणों की कि अनुक्रमणिका को उपविभागों में विभक्त कर अत्यन्त उपयोगी
प्राप्ति करना हो तो यह आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है कि बना दिया गया है। उपविभाजन भी संक्षिप्त नहीं वरन् विस्तृत है।
ब्रह्मचर्य का पालन किया जावे। मोक्ष प्राप्ति के लिए ब्रह्मचर्य छोटे से छोटे बिन्दु को इसमें सम्मिलित कर पाठकों पर बहुत बड़ा
परमावश्यक है। यहाँ तक कि ब्रह्मचर्य लौकिक एवं पारलौकिक उपकार किया गया है।
अभ्युदय के लिए भी आवश्यक है। ब्रह्मचर्य के पालन से शारीरिक
काति खिल उठती है। चेहरे पर तेजस्विता आ जाती है। अब्रह्मचर्य सैद्धांतिक पृष्ठभूमि के अन्तर्गत जिन सात प्रवचनों को लिया
शरीर को निर्बल एवं कांतिहीन बना देता है। निर्बल तन किसी भी गया है, उनका अध्ययन करने से ब्रह्मचर्य की महत्ता और
प्रकार की साधना के लिए उपयुक्त नहीं होता है। यहाँ तक कि वह उपयोगिता स्पष्ट हो जाती है। उपाध्यायश्री जी ने इस खण्ड के
सांसारिक प्रवृत्तियों में भी अनेक स्थानों पर अनुपयुक्त हो जाता है, अपने प्रवचनों में स्पष्ट किया है कि भगवान् महावीर के पूर्व
तब विचार करना चाहिए कि इन दोनों में से किसे अपनाया जावे। ब्रह्मचर्य पृथक व्रत के रूप में न होकर अपरिग्रह के अन्तर्गत ही माना जाता था। भगवान् महावीर ने ब्रह्मचर्य की उपयोगिता को
ब्रह्मचर्य का पालन किसके लिए? यह प्रश्न सहज ही उठाया ध्यान में रखकर चतुर्थ व्रत के रूप में इसे प्रस्थापित किया। उसी
जा सकता है। उत्तर में यही कहा जा सकता है कि ब्रह्मचर्य केवल प्रथम खण्ड में उन्होंने वर्तमान युग में ब्रह्मचर्य की सर्वाधिक
साधु-संन्यासियों के लिए ही आवश्यक नहीं है, वरन् संसार पक्ष में उपयोगिता भी बताई है। यहीं उन्होंने कुछ पाश्चात्य काम
रहने वाले प्रत्येक मानव के लिए आवश्यक है। अपनी-अपनी सीमा मनोविज्ञान शास्त्रियों के ब्रह्मचर्य विषयक मतों का भी उल्लेख किया
में रहते हुए ब्रह्मचर्य की आराधना/परिपालना करना स्वयं साधक है। ये मत भारतीय संस्कृति की मर्यादामूलक सभ्यता के विपरीत हैं।
के हित में ही है। वस्तु स्थिति तो यह है कि पाश्चात्य जगत ब्रह्मचर्य के महत्व को ब्रह्मचर्य की सार्वभौम अनिवार्यता पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने समझ ही नहीं सका है। आज भी उधर स्वच्छन्दवाद का ही बोल लिखा है-“परमात्मदर्शन, आत्म-साक्षात्कार, आध्यात्मिक पूर्णता, बाला है। इस स्वछन्द भोगवाद का तालमेल भारतीयता के परिप्रेक्ष्य । व्रतादि की आराधना, योगादि उच्च साधना, वानप्रस्थ साधना, में नहीं बैठ सकता।
समाज, राष्ट्र या विश्व की सेवा, आध्यात्मिक साधना, मोक्ष प्राप्ति,
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