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| वाग् देवता का दिव्य रूप
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इन परिभाषाओं में प्रयुक्त अनुग्रह शब्द से इन प्रश्नों का समाधान अपने संपादकीय में संपादक-द्वय ने लिखा-“दान मनुष्य के हो जाता है। अनुग्रह अर्थात् उपकार। क्या देने वाला लेने वाले पर सहअस्तित्व, सामाजिकता और अन्तर मानवीय संबंधों का घटक उपकार की भावना से त्याग कर रहा है, दे रहा है? यदि ऐसा है है। कहीं वह संविभाग, कहीं समविभाग, कहीं त्याग और कहीं सेवा तो वह दान नहीं हो सकता। वास्तव में देने वाला लेने वाले पर के रूप में प्रकट होता है। दान इसलिए नहीं दिया जाता है कि इससे और लेने वाला देने वाले पर उपकार करता है। संक्षेप में हम यह व्यक्ति बड़ा बनता है, प्रतिष्ठा पाता है या उसके अहंकार की तृप्ति कह सकते हैं कि उपर्युक्त समस्त परिस्थितियों को छोड़कर यदि होती है अथवा परलोक में स्वर्ग, अप्सराएँ तथा समृद्धि मिलती है। कोई व्यक्ति निस्पृहभाव से, निर्लिप्त भाव से किसी को कुछ देता है किन्तु दान में आत्मा की करुणा, स्नेह, सेवा, बंधुत्व जैसी पवित्र जिससे लेने वाले को कुछ न कुछ लाभ मिलता है, वह दान है। देते भावनाएँ सहराती है, दान से मनुष्य की मनुष्यता तृप्त होती है, समय, देने के पूर्व या बाद में देने वाले के मन में किसी भी प्रकार देवत्व की जागृति होती है और ईश्वरीय आनंद की अनुभूति जगती 2000 के भाव नहीं होने चाहिए। तभी दान कहलाएगा, दान की सार्थकता है। (संपादकीय पृष्ठ ५) होगी। इन्हीं सब बातों का और ऐसी ही अन्य समस्त बातों का
इस प्रवचन संग्रह की प्रस्तावना विद्वान मुनिवर श्री विजय मुनि विवेचन इस प्रवचन संग्रह में किया गया है।
जी शास्त्री ने लिखी है। भूमिका काफी विस्तृत है और अपनी प्रस्तुत पुस्तक सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित रूप से प्रस्तावना में उन्होंने जैन परम्परा, वैदिक परम्परा के साथ ही प्रस्तुत की गई है। इस प्रवचन संग्रह में कुल चवालीस प्रवचन । विभिन्न शास्त्रों, ग्रन्थों में दान के महत्व और परम्परा पर विस्तार संग्रहीत हैं, जिन्हें तीन विभिन्न अध्यायों में विभक्त कर प्रकाशित से प्रकाश डाला है। इसी अनुक्रम में उन्होंने प्रस्तुत संग्रह पर भी किया गया है।
अपने विचार अभिव्यक्त किए हैं। उन्होंने लिखा है-"पुस्तक की १. मानव जीवन का लक्ष्य, २. मोक्ष के चार मार्ग, ३. दान से ।
भाषा और शैली सुन्दर एवं मधुर है। विषय का प्रतिपादन विस्तृत विविध लाभ, ४. दान का माहात्म्य, ५. दान : जीवन के लिए
तथा अभिरोचक है। अध्येता को कहीं पर भी नीरसता की अनुभूति
एवं प्रतीति नहीं होती। जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों परम्पराओं के अमृत, ६. दान से आनंद की प्राप्ति, ७. दान : कल्याण का द्वार, ८. दान : धर्म का प्रवेश द्वार, ९. दान की पवित्र प्रेरणा, १०.
शास्त्रों से यथाप्रसंग प्रमाण उपस्थित किए गए हैं। इससे लेखक की दान : भगवान एवं समाज के प्रति अर्पण, ११. गरीब का दान।।
बहुश्रुतता अभिव्यक्त होती है और साथ ही विचार की व्यपाकता
भी। विषय का वर्गीकरण भी सुन्दर तथा आधुनिक बन पड़ा है। द्वितीय अध्याय-“दान : परिभाषा और प्रकार" है। इस ।
बीच-बीज में विषय के अनुरूप दृष्टान्त और कथाओं का प्रयोग अध्याय में कुल उन्नीस प्रवचन संग्रहीत हैं। यथा-१. दान की करके विषय की दरूहता और शकता का सहज ही परिहार कर व्याख्याएँ, २. महादान और दान, ३. दान का मुख्य अंग :
दिया गया है। इतना ही नहीं, विषय का प्रस्तुतीकरण भी सरस, स्वत्व-स्वामित्व-विसर्जन, ४. दान के लक्षण और वर्तमान के कुछ ।
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सरल एवं सुन्दर हो गया है। आबाल वृद्ध सभी इसके अध्ययन का दान, ५. दान और संविभाग, ६. दान की तीन श्रेणियाँ, ७.।
आनंद उठा सकते हैं। आज तक दान पर जिन पुस्तकों का प्रकाशन अनुकम्पादान : एक चर्चा, ८. दान की विविध वृत्तियाँ, ९.
हुआ, यह पुस्तक उन सबमें उत्तम, सुन्दर तथा संग्रहणीय है।" अधर्मदान और धर्मदान, १०. दान के चार भेद : विविध दृष्टि से, ११. आहार दान का स्वरूप, १२. औषधदान : एक पर्यवेक्षण,
अपने इस संक्षिप्त कथन में प्रस्तावना लेखक ने इस पुस्तक के १३. ज्ञानदान बनाम चक्षुदान, १४. ज्ञानदान एवं लौकिक पहलू,
संबंध में बहुत कुछ कह दिया है। पुस्तक की मूलभूत विशेषताओं १५. अभयदान : महिमा एवं विश्लेषण, १६. दान के विविध
का विवेचन हो गया है। उनका यह कथन सटीक भी है। पहलू, १७. वर्तमान में प्रचलित दान : एक मीमांसा, १८. दान । उपर्युक्त कथन की पुष्टि तभी होगी जब हम पुस्तक की विषय और अतिथि सत्कार एवं १९. दान और पुण्य : एक चर्चा। । वस्तु को समझने का प्रयास करेंगे। इसके लिए हमें पुस्तक में
संग्रहीत तीनों खण्डों के सभी प्रवचनों का सर्वेक्षण करना होगा। तृतीय अध्याय-“दान : प्रक्रिया और पात्र" शीर्षकान्तर्गत ।
100.00 दिया गया है। इसमें चौदह निम्नांकित प्रवचन दिए गए हैं-१. दान प्रथम अध्याय के प्रथम प्रवचन में मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष की कला, २. दान की विधि, ३. निरपेक्षदान अथवा गुप्तदान, ४. प्राप्ति बताया गया है। मोक्ष प्राप्त करने के लिए चार मार्गों का दान के दूषण और भूषण, ५. दान और भावना, ६. दान के संग्रह | विवेचन द्वितीय प्रवचन में किया गया है। दान, शील, तप और : एक चिन्तन, ७, देय द्रव्य शुद्धि, ८. दान में दाता का स्थान, ९. भाव-ये चार मार्ग बताकर यह स्पष्ट किया गया है कि इनमें दान दाता के गुण-दोष, १०. दान के साथ पात्र का विचार, ११. सुपात्र । प्रथम क्यों? दान की प्राथमिकता के कारणों पर भी सुन्दर दान का फल, १२. पात्रापात्र विवेक, १३. दान और भिक्षा और । रीत्यानुसार प्रकाश डाला गया है। तीसरे प्रवचन में दान के विविध १४. विविध कसौटियाँ।
लाभों की चर्चा की गई है। इसके अंत में लिखा है-"दान ही वह
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