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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । शून्य का अर्थ यदि जड़ हो जाना किया जाए तो ध्यान का बहिर्मुखी बना हुआ है, वह हर समस्या का समाधान प्रत्येक व्याधि अर्थ होगा-जड़ता में डूब जाना। भारत के नौ दर्शनों में से एक { का उपचार बाहर में ढूंढ़ता है, भीतर में समाधान खोजने की मात्र बौद्ध-दर्शन और उसमें भी सौत्रान्तिक, वैभाषिक, माध्यमिक उसकी वृत्ति, रुचि या इच्छा ही नहीं होती। भीतर में खोजना होता और योगाचार, इन चार मतों में से केवल "योगाचार मत" ही है-ध्यान द्वारा। उसमें बहुत कुछ समाधान मिल सकता है। शून्यवाद को मानता है। किन्तु यह तो सब का प्रत्यक्ष अनुभव है कि । चिकित्सकों ने भी जब भीतर में समाधान खोजा तो उससे मन एक क्षण के लिए भी शून्य नहीं हो सकता। शून्य होने पर मानसिक, आध्यात्मिक और संकल्पनात्मक एवं ध्वन्यात्मक चिकित्सा ध्यान कैसे हो सकेगा? क्योंकि ध्यान में तो मन जागृत रहना का विकास हुआ। ध्यान के द्वारा अन्तर् में डुबकी लगाने पर शिव, चाहिए, आत्मा के प्रति। मन न तो अजागृत अवस्था में शून्य होता। अनल, अरुज (नीरोग) अनन्त, अक्षय, अव्याबाध एवं शाश्वत
है और न ही स्वप्नावस्था में। स्वप्न भी मन में आता है। इसलिए | आत्मा के दर्शन होते हैं। वह पूर्ण स्वस्थता का अनुभव कर * मन को शून्य बनाकर ध्यान करने का उपदेश यथार्थ नहीं है। पाता है।
ध्यान का मुख्य प्रयोजन और उससे बहुत बड़ी निष्पत्ति मन को अशुभ विकल्पों से हटाकर शुभ विकल्पों में लगाना ना ध्यान का मुख्य प्रयोजन है-बाहर से सम्पर्क तोड़कर भीतर की मन जब संकल्प-विकल्पात्मक है, तब उसके शून्य होने का तो गहराई में डूब जाना। भीतर का जगत् एक अनोखा जगत् है। उस सवाल ही नहीं उठता। यह बात अवश्य है कि ध्याता को अन्तर्मुखी जगत् में प्रवेश करने का नाम ही ध्यान है। बाहर में अत्यन्त बनकर ध्यान-साधना करते समय मन की चंचलता, बहिर्मुखता, खींचातानी रहती है। आंख, कान, नाक, जीभ और स्पर्श की बाह्यविषयों में उछलकूल को तो अवश्य रोकना पड़ेगा। उसे इन्द्रियों के विषय अपनी-अपनी ओर खींचते है। कभी रूप खींचता । अन्तर्जागृति अवश्य रखनी पड़ेगी। शुभ ध्यान के समय मन अशुभ
है, कभी शब्द खींचता है, कभी सुगन्ध खींचती हैं, कभी स्वाद संकल्प-विकल्प न करने लगे, यह जागृति अवश्य रखनी है। परन्तु SDP खींचता है और कभी कोमल गुदगुदा मनमोहक स्पर्श खींचता है। मन की गति को रोकना नहीं है, उसकी गति को शुभ और शुद्ध 1955. बाह्य जगत् में पूर्ण खींचातानी मची हुई है। ध्यान-साधक जब इसकी ओर मोड़ना है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो अशुभ विकल्पों की
खींचातानी से मुक्त होकर अंदर में चला जाता है, भीतर का ओर दौड़ते हुए मन को रोककर शुभ विकल्पों में लगाना है, मन्द 2000 अनुभव करने लग जाता है और गहराई में डुबकी लगाता है। यह करते-करते उच्चभूमिका आ जाने पर निर्विकल्प बनाना है। 4 स्थिति प्राप्त होने पर ही ध्यान जमाता है।
ध्यान : मनरूपी कार को मन्द करता है, बंद नहीं FAR सामान्यतया व्यक्ति किसी वस्तु, विचार या व्यक्ति के प्रति या । बन्धओ!
बन्धुआ! स्तो अनुकूल, अच्छा या मनोज्ञ मानकर स्वीकार करता है या फिर
इसे एक रूपक द्वारा समझिए-एक व्यक्ति के पास कार है। प्रतिकूल बुरा या अमनोज्ञ मानकर अस्वीकार। परन्तु ध्यान इन
कार गेरेज में बंद करके रखने के लिए नहीं है। जब कार में गति बहिर्मुखी रागद्वेषात्मक विचारों से तादात्म्य न रखकर उपेक्षाभाव रख, ज्ञाता-द्रष्टा बनना सिखाता है। अर्थात् वह समता में रहकर न
नहीं होती, तब वह एक स्थान पर पड़ी रहती है। परन्तु कार ठीक
गति कर रही है, वह व्यक्ति भी उसका उपयोग तीव्रगति से एक तो उसे अच्छा मानता है, न बुरा केवल ज्ञाता-द्रष्टा बनकर रहता 10 है। जैसे दर्पण के सामने कोई भी वस्तु आए, दर्पण तो वस्तु का
स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए करता है। परन्तु कार जैसा आकार प्रकार है, उसे प्रतिबिम्बित कर देता है, उसे अच्छा
चालक को पूरा ख्याल रखना पड़ता है कि किस गन्तव्य स्थान पर
कार को ले जाना है? कहां-कहाँ मुझे टर्न लेना हैं? यदि गन्तव्य बुरा प्रगट करना उसका काम नहीं है। इसी प्रकार ध्यानलीन साधक के सामने बाहर की चीजें आती जाती हैं, परन्तु वह उन्हें
स्थान ५ माइल पर ही है तो कुशल ड्राईवर चार माइल आने पर
एक माइल पहले ही कार को धीमी कर देता है, बंद नहीं। गन्तव्य महत्व नहीं देता। अतः ध्यान सुख-दुःख से परे की अनुभूति है, इन
स्थान पर पहुँच कर ही वह कार को रोकता है, पहले नहीं। इसी दोनों से तटस्थ रहकर समता में स्थित-प्रज्ञता में प्रवेश है। जो
प्रकार आपको भी मनरूपी कार मिली है। वह शून्य बनाकर रख व्यक्ति अन्तर्गमन करता है, उसके लिए बाहर के सारे रस नीरस
देने के लिए नहीं है। मन के साथ संघर्ष करने से मन अपनी क्रिया पड़ जाते हैं। उसे ही सच्ची शांति प्राप्त होती है, जो ध्यान से ही
बंद करने वाला नहीं है। अतः मनरूपी कार जो जीवन के मार्ग पर PP शक्य है।
तीव्र गति से दौड़ रही है। एक ही क्षण में मन समग्र लोक में प्रायः व्यक्ति दूसरे व्यक्ति-बाह्य व्यक्ति, वस्तु, स्थिति को चक्कर लगाकर आ जाता है। अतः ध्यानवेत्ता कहते हैं कि :006
बदलना चाहता है, अपने आपको बदलने का प्रयास प्रायः नहीं | ध्यातारूपी ड्राईवर को चाहिए कि मनरूपी कार की तीव्र गति को करता। अपने अन्तर में झांकने पर ही व्यक्ति को अपने मन, वाणी, मन्द करे, उसकी गति को बंद न करे। उसे जहाँ-जहाँ मोड़ना है, विचार और कर्म में निहित दोषों को देखने, दूर करने और स्वयं वहाँ मोड़ दे। मनरूपी कार को अपना सहायक मानकर चले, शत्रु को सुधारने का मौका मिलता है। जिसका दृष्टिकोण केवल या विरोधी नहीं।
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