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} वाग् देवता का दिव्य रूप
३८९ 2600 है कि रात्रि के प्रथम प्रहर में देव आया, उसने सेवा की या उपसर्ग
190590.90 । पड़ाव है। संलेखना मानव जीवन के अंतिम समय की साधना है, किया अथवा श्रावक ने अमुक चिन्तन किया।
कुछ अज्ञ संलेखना के स्वरूप को/महत्व को समझते नहीं या समझ
Face इसके अतिरिक्त शास्त्रों में एक बात और सूचित की गई है कि
नहीं पाये इसलिए उनके मन में इसके संबंध में अनेक भ्रान्त पौषधव्रत में श्रावक पर अनेक प्रकार के उपसर्ग एवं परीषह भी
धारणायें हैं। इस प्रवचन में संलेखना का सांगोपांग विवेचन है। आते हैं, उस समय उसे अपने धर्म, व्रत और आत्म स्वरूप में
अज्ञों के मन की भ्रांत धारणाओं का निरसन है। अंत में कहा गया दृढ़तापूर्वक स्थिर रहना चाहिए। यदि असहिष्णु बनकर श्रावक ने
है-"संलेखना जीवन की अंतिम साधना है, जीवन की समस्त धैर्य खो दिया या वह विचलित हो गया तो उसका व्रत भंग हो
साधना का अंतिम सार है, एक प्रकार से साधना के मंदिर पर जाएगा। (पृष्ठ ५९५)
अंतिम स्वर्ण कलश है। इस भूमिका पर पहुँचकर साधक जीवन की लालसा व मृत्यु की विभीषिका से मुक्त होकर धर्म जागरणा में लीन
000 पौषधव्रत के भी पाँच अतिचार हैं और उनसे प्रत्येक श्रावक
हो जाता है और अपने भीतर में सुप्त परम चैतन्य ज्योति का को बचना चाहिए।
दर्शन करता हुआ प्रसन्नता व आल्हादपूर्वक देह त्यागता है। वह श्रावक का मूर्तिमान औदार्य है : अतिथि संविभाग व्रत। यह जीवन की सभी चिन्ताओं को भरकर कृतकृत्यता अनुभव करता सद्गृहस्थ श्रावक का अंतिम बारहवाँ व्रत है-अंतिम सोपान है। इस | हुआ अगली यात्रा के लिए प्रस्थान करता है। व्रत का पालन करने से श्रावक के आत्म विकास के सक्रिय रूप का
सम्पूर्ण प्रवचन संग्रह न केवल जैनधर्मावलम्बियों के लिए वरन् यथार्थ अनुमान लग जाता है कि उसने चित्त में उदारता को कितना
जिनको भी इस विषय में जानकारी चाहिए उन सबके लिए अत्यन्त स्थान दिया है? उसकी आत्मा आत्मवत् सर्वभूतेषु के मंत्र को
उपयोगी है। वैसे श्रावक के धर्म विषय में अलग-अलग तो कई जीवन में कितना पचा सकी है? आत्मौपम्य उसके जीवन में कितनी
स्थानों पर प्रकाश डाला गया है। किन्तु सम्पूर्ण रूप से एक ही स्थान मात्रा में विकसित हुआ है ? इसका मूल्यांकन भी इस व्रत के पालन
पर विस्तार से प्रकाश इसी पुस्तक में डाला गया है। ऐसा करके से किया जा सकता है।
प्रवचनकार ने और संपादक ने समाज पर उपकार ही किया है। इस इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि यह व्रत सेवा कार्य अभ्यास संग्रह में कुल छब्बीस प्रवचन संग्रहीत है। के लिए है और दूसरों को लाभ पहुँचाना ही इस व्रत का उद्देश्य है,
। सभी प्रवचनों को निबन्ध रूप में सम्पादित कर प्रकाशित करने इसके भी पाँच अतिचार बताए गए हैं। अंत में कहा गया है कि
से पुस्तक बहु-उपयोगी बन गई है। भाषा सुबोध है। सरल एवं सरस श्रावक को अत्यन्त उदार एवं व्यापक दृष्टि अपनाकर अपने प्राप्त
है। शैली में लाक्षणिकता है। विस्तार को देखते हुए व्यास शैली कही साधनों का यथायोग्य संविभाग करके इस व्रत की सम्यक् आराधना
जा सकती है किन्तु कही समास शैली भी परिलक्षित होती है। करनी चाहिए।
दृष्टान्त-कथाओं को प्रस्तुत कर विषय वस्तु को सहज-सरल बनाया संलेखना : अंतिम समय की अमृत-साधना। यह इस अध्याय गया है जिससे सामान्य पाठक भी इसे आत्मसात कर सके। ऐसे का और पूरे संग्रह का अंतिम प्रवचन है और मनुष्य का भी अंतिम सुन्दर प्रकाशन का सर्वत्र स्वागत होना स्वाभाविक है।
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* जब मनुष्य की अपनी शक्ति और बुद्धि काम नहीं देती तो वह सब कुछ भाग्य भरोसे छोड़ देता है। * मनुष्य संस्कारों की प्रेरणा से कर्म करता है और कर्मों से ही मनुष्य के संस्कार बनते हैं। * चिन्ता स्वार्थ का दण्ड है। स्वार्थी लोग ही सदा दुःखी व चिन्तित रहते हैं। * धन का उपयोग है दूसरों का पहले हित करना और बाद में स्वयं भोग करना।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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