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| बाग देवता का दिव्य रूप
सिंहासन से उठा और उन्हें झुक कर भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। आदर सहित उन्हें लाया, अपने सिंहासन पर बिठाया और स्वयं उनके चरणों में बैठा।
राजा धनसेन की इस क्रिया से सभी उपस्थित जन आश्चर्य में पड़ गये। उनकी दृष्टि राजा की ओर उठ गई। राजा बोला
"आप सब का आश्चर्य स्वाभाविक है लेकिन ये मेरे गुरु हैं। मैंने इनसे विद्या सीखी है ? अपने गुरु को भक्तिपूर्वक प्रणाम करना और उच्चासन देना मेरा कर्त्तव्य है। मैंने अपने कर्त्तव्य का ही पालन किया है।"
राजा के स्पष्टीकरण से लोगों का समाधान तो हुआ, जिज्ञासा भी शांत हो गई लेकिन खुसर-पुसर होने लगी- राजा धनसेन के गुरु डोम है।
राजा धनसेन की विनय और भक्ति से विद्याधर विद्युत्प्रभ और विद्याधरी विद्युद्वेगा प्रसन्न हो गये। उन्हें राजा का अपवाद अच्छा न लगा। अपवाद मिटाने के लिए वे अपने असली रूप में आ गये।
लोगों ने देखा - डोम- डोमनी के स्थान पर एक तेजस्वी युवक और युवती बैठे हैं। उनकी देह-कान्ति अनुपम है। शरीर पर सुन्दर वस्त्राभूषण हैं। सभी आश्चर्य में डुबकियाँ लगाने लगे। उनके आश्चर्य का समाधान करते हुए विद्याधर विद्युत्प्रभ ने कहा
"मैं रथनूपुर का राजा विद्युत्प्रभ विद्याधर हूँ। और यह है मेरी पत्नी विद्युद्वेगा । मैं समस्त विद्याधरों का नायक हूँ। तुम्हारी विनय-भक्ति से मैं तुम पर प्रसन्न हूँ।"
"लेकिन आपने डोम का रूप क्यों बनाया?" राजा धनसेन ने जिज्ञासा की।
"उसका एक कारण था।" विद्युत्प्रभ ने कहा- "मेरी पत्नी विद्युद्वेगा ने जब उस परिव्राजक की तपस्या की प्रशंसा की तो मैंने डोम का रूप बनाकर उसकी परीक्षा ली
"
" और वह कृतघ्न निकला।" राजा ने वाक्य पूरा कर दिया। विद्याधर विद्युत्प्रभ ने आगे कहा
"राजन् ! इन क्षुद्र विद्याओं और चमत्कारों में धर्म नहीं है, धर्म तो आत्म-कल्याण में है। इन चमत्कारों से कभी प्रभावित नहीं होना चाहिए। सदा अपने आत्मकल्याण की साधना करनी चाहिए और आत्म-कल्याण का साधन है-रत्नत्रय की आराधना, सच्चे देव, गुरु और धर्म पर विश्वास, उन्हीं के द्वारा दिया हुआ ज्ञान और उन्हीं के बताये उत्तम पथ का आचरण । इसी से जीव संसार के बन्धनों को काटकर मुक्त होता है।"
राजा को यह सुनकर बहुत सन्तोष हुआ। वह समझ गया कि जिनधर्म ही सार है। वह जिनधर्म का अनुयायी बन गया। अन्य लोग भी प्रभावित हुए। उन्होंने भी जिनधर्म ग्रहण कर लिया।
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जिस प्रकार राजा धनसेन ने उत्तम धर्म ग्रहण किया उसी प्रकार प्रत्येक मुमुक्षु का कर्त्तव्य है कि विनयपूर्वक धर्म को ग्रहण करे, गुरु की श्रद्धा-भक्ति करे।
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अरुणदेव और देयिणी
( वचन शुद्धि का विवेक)
पुराने समय में ताम्रलिप्ति नगरी में कुमारदेव नाम का एक व्यापारी रहता था। भगवत्कृपा से कुमारदेव के एक पुत्र उत्पन्न हुआ । श्रेष्ठी कुमारदेव ने उसका नाम अरुणदेव रखा। प्रायः यह देखने में आता है कि जिनके घर में सन्तान की कमी नहीं होती, उनके यहाँ धन का अभाव होता है और जिनके यहाँ धन की प्रचुरता होती है, उनके यहाँ औलाद नहीं होती श्रेष्ठी कुमारदेव के यहाँ लक्ष्मी का वास था। बड़ी मनौतियों से उसके एक पुत्र हुआ था, इसलिए अरुणदेव माता-पिता को विशेष प्रिय था। कुमारदेव ने यथासमय विद्यालय भेजकर अरुणदेव को उचित शिक्षा दिलाई।
-हरिषेण वृहत्कथाकोष, भाग-१ (जैन कथाएं भाग ९ पृष्ठ ७१-८९)
चूहे के बच्चे बिल खोदना सहज रूप से ही सीख लेते हैं। अरुणदेव व्यापारी का पुत्र था, अतः वह सहज रूप से ही व्यापार-वाणिज्य में निपुण हो गया। ताम्रलिप्ति नगरी में ही महेश्वर नाम का अन्य श्रेष्ठी पुत्र था अरुणदेव की महेश्वर से प्रगाढ़ मैत्री थी। अरुणदेव और महेश्वर जब कभी जहाज में माल भर कर व्यापार करने दूर देश जाते तो साथ-साथ हो जाते। व्यापार में दोनों साथी थे ही घर पर भी साथ-साथ ही खाते-पीते उठते-बैठते थे।
एक बार कुमारदेव ने सोचा, अरुणदेव हर तरह से योग्य और समर्थ हो गया है। समस्त लेन-देन और व्यापार इसने अपने हाथों में ले लिया है। अब तो शीघ्र ही इसका विवाह कर देना चाहिए।' कुमारदेव अरुणदेव के विवाह की चिन्ता में था। संयोग से पाटलिपुर नगर का व्यापारी जसादित्य अपनी पुत्री देयिणी का विवाह प्रस्ताव लेकर कुमारदेव के पास आया । जसादित्य की पुत्री देयिणी रूपवती होने के साथ-साथ गुणवती भी थी। कुमारदेव ने जसादित्य का विवाह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और अरुणदेव तथा देयिणी का विवाह बड़ी धूमधाम से सम्पन्न हो गया।
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एक दिन महेश्वर और अरुणदेव बैठे बातें कर रहे थे। महेश्वर ने अरुणदेव से कहा
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" मित्र ! आजकल देयिणी भाभी पाटलिपुर- अपने पीहर गई हुई है, इसलिए तुम्हारा मन कुछ उदास रहता है। मेरी बात मानो भाभी को लिवा लाओ।"
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