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वाग्देवता का दिव्य रूप
हुई सफलता-असफलता । मन किस सीमा तक परिमार्जित हुआ, इसकी जाँच वासना, तृष्णा और अहंता के सूक्ष्म क्षेत्र पर कसौटी लगाने से ही हो जाती है।
इन्द्रियों व शरीर पर आधिपत्य है-मन का; और आत्मा का आधिपत्य है-मन पर मन कहाँ, क्या और कैसा कौतुक रच रहा है? कहाँ-कहाँ वह दौड़ लगा रहा है? इसके लिए परीक्षा क्षेत्र इन्द्रियाँ ही हैं। इन्हें नियंत्रित करना ही मोटे तौर पर मनोनिग्रह की सच्ची कसौटी है । इन्द्रियों के साथ द्रव्यमन गुंथा हुआ है। व्यक्तिगत चरित्र और चिन्तन के स्तर को समझने के लिए भी इन्द्रियों की वासनावृत्ति का देखना-परखना होता है। आचार्यश्री तुलसी ने एक ग्रन्थ की रचना की है, उसका नाम है-मनोऽनुशासनम् - " मन पर अनुशासन" उसमें उन्होंने मन को अनुशासित-निगृहीत- प्रशिक्षित करने के लिए ५ अनुशासन और बताएँ हैं-१. आहार का अनुशासन, २. शरीर का अनुशासन, ३. इन्द्रिय- अनुशासन, ४. श्वास का अनुशासन और ५. भाषा का अनुशासन । एक मनोदेव को सिद्ध करने के लिए पाँच अन्य देवों की साधना करनी पड़ती है, ऐसा क्यों? सीधे ही मन पर अनुशासन क्यों नहीं हो सकता? इसका समाधान यह है कि मन का आहार, शरीर, इन्द्रिया, श्वास, भाषा आदि के साथ सीधा संबंध है आहार-शुद्धी सत्वशद्धिः सत्वशुद्ध ध्रुवा स्मृति, ऐसा उपनिषद में कहा गया है। शरीरादि को सुशिक्षित न किया जाए तो मन पूर्ण रूप से निगृहीत नहीं हो सकता। एक पर्वत से दूसरे पर्वत पर जाने के लिए बीच के आकाश को रज्जुमार्ग से रस्सी के सहारे पार किया जाता है। मनोऽनुशासन अध्यात्म मार्ग है, वह आकाशवत् निरालम्ब है, किन्तु मनोऽनुशासन तक पहुँचने के लिए ये बीच के रज्जुमार्गवत् आलम्बन बहुत जरूरी है।
इन पाँचों इन्द्रियों पर नियंत्रण पूर्वोक्त मोर्चों पर अनुशासन करने से होगा। सर्वप्रथम रसनेन्द्रिय नियंत्रण को लें। इससे स्वाद चखना और भाषा बोलना, ये दोनों काम होते हैं। दोनों पर अंकुश रखने से ही मन पर नियंत्रण या अनुशासन हो सकेगा। दूसरी हैकामेन्द्रिय (स्पर्शेन्द्रिय) नियंत्रण। स्वादेन्द्रिय और वचनेन्द्रिय (जिह्वा) पर अनुशासन की तरह बल्कि इससे भी अधिक कठोरतापूर्वक नियंत्रण कामेन्द्रिय पर रखा जाए तो मनोनिग्रह आसान होगा। इसके अतिरिक्त घ्राणेन्द्रिय चक्षुरेन्द्रिय और श्रोत्रेन्द्रिय पर भी कड़ाई से नियंत्रण रखा जाए तो मन सहज ही वश में आ जाता है। कुछ दिनों के सतत अभ्यास से तथा अनुप्रेक्षा चिन्तन के फल स्वरूप वैराग्य से मनोनिग्रह बहुत ही सफल हो जाता है वैसे देखा जाए तो मनोनिग्रह बहुत ही सरल हो जाता है, पूर्वोक्त प्रकार के अभ्यास और वैराग्य से किन्तु जिन्हें अपने रूढ़ परम्परा और ढर्रे पर ही चलना है, उनके लिए मनोनिग्रह कठिन है, ऐसे लोग मनोनिग्रह न कर पाने के कारण नाना दुःखों से रोगों से और कष्टों से घिरे रहते हैं।
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जपयोग की विलक्षण शक्ति
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-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म.
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ बहनो!
आज मैं आपको जप की विलक्षण शक्ति के विषय में सभी पहलुओं से बताऊँगा।
जप क्या है?
स्थूलदृष्टि से देखने पर यही मालूम होता है कि जप शब्दों का पुनरावर्तन है। किसी भी इष्टदेव, परमात्मा या वीतराग प्रभु के नाम का बार-बार स्मरण करना, या किसी मंत्र या विशिष्ट शब्द का बार-बार उच्चारण करना जप है। इसे जाप भी कहते हैं। पदस्थ ध्यान का यह एक विशिष्ट अंग है।
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शब्दों के बार-बार उच्चारण से क्या लाभ?
प्रश्न होता है-शब्दों का उच्चारण तो संसार का प्रत्येक मानव करता है। पागल या विक्षिप्तचित्त व्यक्ति भी एक ही बात (वाक्य) को बार-बार दोहराता है अथवा कई राजनीतिज्ञ या राजनेता भी अपने भाषण में "गरीबी हटाओ", "स्वराज्य हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है", अथवा “भारत छोड़ो” आदि नारे लगवाते हैं। कई लोग रात-रात भर हरे राम हरे कृष्ण आदि की धुन लगाते हैं, अथवा कीर्तन करते-कराते हैं, कई लोग तो रात-रात भर जागकर भजन करते हैं, लाउडस्पीकर के द्वारा कीर्तन, जप, या धुन लगाते हैं, क्या इनसे कोई लाभ होता है ? क्या ये शब्दोच्चारण आध्यात्मिक लक्ष्य की पूर्ति करते हैं ?
शब्द शक्ति का प्रभाव
इसका समाधान यह है कि वैसे प्रत्येक उच्चारण किया हुआ या मन में सोचा हुआ शब्द चौदह रज्जू प्रमाण (अखिल ) लोक (ब्रह्माण्ड ) में पहुँच जाता है। जैसे भी अच्छे या बुरे शब्दों का उच्चारण किया जाता है, या सामूहिक रूप से नारे लगाये जाते हैं, या बोले जाते हैं, उनकी लहरें बनती हैं, वे आकाश में व्याप्त अपने सजातीय विचारयुक्त शब्दों को एकत्रित करके लाती है। उनसे शब्दानुरूप अच्छा या बुरा वातावरण तैयार होता है। अच्छे शब्दों का चुनाव अच्छा प्रभाव पैदा करता है, और बुरे शब्द बुरा प्रभाव डालते हैं। अधिकांश लोग शब्दशक्ति को कैवल जानकारी के आदान-प्रदान की वस्तु समझते हैं। वे लोग शब्द की विलक्षण शक्ति से अपरिचित हैं वे शब्दोच्चारण की अचिन्त्यशक्ति से बहुत कम परिचित हैं। शब्दों के साथ-साथ अभिधा, लक्षणा और व्यंजना की शक्ति साहित्य दर्पण आदि साहित्य ग्रन्थों ने स्वीकार की है इतना ही नहीं, शब्दों के साथ-साथ अनेकानेक भाव, प्रेरणाएँ, संवेदनाएं एवं अभिव्यंजनाएं भी जुड़ी हुई होती हैं। यही कारण है कि कटुशब्द सुनते ही क्रोध, रोष एवं आवेश उभर आता है और
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