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। वाग् देवता का दिव्य रूपमा
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मन
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_ “एक मात्र मन-देवता को ही समस्त सिद्धियों का दाता समझो। जिस प्रकार एक वालक को उसके माता-पिता जिस काम के मन को जीते बिना अन्य क्रियाओं को असफल प्रयास वाली हीलिए मना करते हैं, उस काम को करने की ओर उसका मन जानो।"
अधिकाधिक उत्सुक एवं तत्पर होता है, मनुष्य के मन का भी यही एक अन्य विद्वान ने भी कहा है-“मनो यस्य वशे तस्य, भवेत ।
स्वभाव है कि जिस वस्तु के लिए जितना अधिक निषेध किया सर्व जगत्वशे।" जिसके मन वश में है उसके सारा जगत् वश में
जाता है, मन उसे करने के लिए उतना अधिक तेजी से दौड़ता है।
इसलिए मन का वशीकरण इन्द्र आदि के वशीकरण की अपेक्षा है।" निगृहीत मन की शक्ति और चमत्कारों की घटनाओं से
अधिक कठिन है। यही कारण है कि अधिकांश व्यक्ति मन को वश भारतीय धर्म ग्रन्थों के पुराण एवं इतिहास भरे पड़े हैं। इसका
में करने का विचार या प्रयल ही नहीं करते। माहात्म्य एक सूत्र रूप में योगवाशिष्ठ में कहा गया है___“मनो हि जगतां कर्तृ, मनो हि पुरुषः स्मृतः।” मन ही त्रिजगत्
मनोनिग्रह-हेतु सर्वप्रथम चंचलता पर अंकुश लगाना आवश्यक का कर्ता है वही पुरुष कहा गया है।
शरीर, अंगोपांगों और इन्द्रियों पर नियंत्रण मन का है। मन
की प्रेरणा से ही ये सब काम करते हैं। प्रयल जिस दिशा में चल मन पर विजय पाने का पुरुषार्थ विरले ही करते हैं
पड़ते हैं, उसी दिशा में उसी प्रकार की प्रगति होती है। जिन्हें आजकल कई लोग भूत-प्रेतादि को वश में करने का तो प्रयत्न भौतिक मार्ग पर आगे बढ़ना है, उन्हें भी, और जिन्हें आध्यात्मिक करते हैं, परन्तु मन को वश में करने का पुरुषार्थ कोई विरले ही प्रगति के मार्ग पर बढ़ना है, उन्हें भी सर्वप्रथम मन की चंचलता को करते हैं। कई लोग तो यह कहकर निराश होकर बैठ जाते हैं कि । नियंत्रित करना आवश्यक है। अगर सर्वप्रथम मन की चंचलता पर मन वश में होना बहुत कठिन है।
अंकुश नहीं लगाया जायेगा तो वह अनगढ़ अस्तव्यस्त हेतु की और एक निर्जन वन में एक विख्यात योगी ध्यान-साधना करते थे।
शेखचिल्ली के स्तर की कल्पनाएं करता रहेगा, और बन्दर की उनकी प्रसिद्धि की चर्चा सुनकर कई व्यक्ति उनके पास अपने
तरह उछलकूद मचाने में ही अपना समय गंवा देगा। फलतः अभीष्ट
प्रयोजन की सिद्धि में उसका योगदान नहीं के बराबर ही प्राप्त हो लौकिक स्वार्थों की पूर्ति करने आया करते थे। एक दिन उस वन के निकटवर्ती नगर का एक सामान्य व्यक्ति उस योगी की सेवा में
सकेगा। ऐसी स्थिति में अपने अभीष्ट लक्ष्य तक साधक कैसे पहुँच
पाएगा? पहुँचा और एक महीने तक उनकी सेवा में रहा। वह योगी की प्रत्येक क्रिया के साथ लगा रहता था। एक दिन योगी ने उससे सी बात की एक बात है-प्रगति का ककहरा प्रारम्भ करते हुए पूछा-"तुम्हारा यहाँ आने का क्या प्रयोजन है? मेरे पास क्यों रह । सर्व-प्रथम मनोनिग्रह की वर्णमाला को अपनाना आवश्यक है। इसके रहे हो?" उसने कहा-"भगवन। मझे ऐसा मंत्र चाहिए, जिससे बिना किसा भा काय म तत्परता तन्मयता और एकाग्रता नहीं सध देवों का राजा इन्द्र मेरे वश में हो जाए।" यह सुनकर योगी ने ।
सकेगी। साथ ही मनोनिग्रहकर्ता को अपने चिन्तन, चरित्र और कहा-"अरे भोले जीव! इन्द्र को वश में करने की चिन्ता क्यों ।
व्यवहार में घुसी हुई अनेकाग्रता, अस्तव्यस्तता वं त्रुटियों का भी करता है, मन को वश में क्यों नहीं करता?" वह बोला
निराकरण करना होगा। "भगवन्! बात तो आपकी ठीक है, परन्तु मुझे पहले मन को नहीं,
मनोनिग्रह कठिन क्यों लगता है? इन्द्र को वश में करना है। कृपा करके आप मुझे इन्द्र को वश में
इसीलिए मनोनिग्रह विलासी, भोगी एवं इन्द्रियलोलुप लोगों को करने का ही मंत्र दे दीजिए।" योगी ने उसे मंत्र बताया, साथ ही
बहुत कठिन लगता है। उसका कारण यह है कि वे अवसरहीन, S उस मंत्र को सिद्ध करने की प्रक्रिया बताते हुए कहा कि इस मंत्र
साधन और सहयोग से हीन तथा आधार रहित कल्पना करने के को एक गुफा में एकान्त में बैठकर सिद्ध करना होगा। इस मन्त्र को
आदी हो गए हैं। वे उनमें उलझे रहते हैं, इस कारण निरर्थक सिद्ध करने में छह महीने लगेंगे। इस मन्त्र साधना के साथ एक
समय, शक्ति और ऊर्जा खर्च होती है। वे अपनी बहुमूल्य आत्मिक बात का ध्यान रखना अत्यावश्यक है। वह यह कि मंत्र-साधना के
सम्पदा एवं मन की शक्ति एवं सम्पदा को निरर्थक व्यय करने की दौरान तुम्हारे मन में बन्दर का विचार आ गया तो मंत्र सिद्धि
आदत को छोड़ नहीं सकते। कई लोग अपने निरर्थक मनोरंजन के नहीं होगा। वह साधक अपने मन में मन्त्र-साधना के समय
लिए ताश खेलने, जूआ खेलने, शिकार करने, अश्लील फिल्म सावधानी का संकल्प करके एक गुफा में उक्त मंत्र की जप-साधना
देखने, उपन्यास पढ़ने अथवा लड़ने झगड़ने में, गप्पें मारने में अपने करने चला गया। उसने वहाँ एक स्थान शुद्ध और स्वच्छ करके
बहुमूल्य समय और धन का अपव्यय करते रहते हैं। वे मन का मंत्र-साधना प्रारम्भ कर दी। इन्द्रविजय के मंत्र का जाप शुरू करने
निग्रह करने की बात सोचते ही नहीं। के थोड़ी देर के पश्चात् उक्त योगी द्वारा निषिद्ध बन्दर की याद आ गई। अब क्या था? ज्यों-ज्यों वह बन्दर की कल्पना को मन से ।
निषेधात्मक चिन्तन से मन की शक्ति का ह्रास हटाता या दबाता, त्यों-त्यों वह मन पर अधिकाधिक उभर कर कई लोग अपने मन की शक्ति को निषेधात्मक चिन्तन में आने लगी, बन्दर की कल्पना अधिकाधिक दृढ़ होने लगी!
लगाते हैं। ऐसे लोग छोटी-मोटी बातों को बढ़ा चढाकर मन को
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