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१ वाग् देवता का दिव्य रूप
३२९ । "राजन्! इसके लिए मुझे रनिवास में बे-रोक-टोक जाने की "राजन् ! जैसा दीखता है, सदा वैसा नहीं होता। बड़े-बड़े तथ्यों अनुमति दीजिये।"
पर परदा पड़ जाता है। अब आप पुनः निरख-परख करें और 'अनुमति है। तुम्हें कोई प्रतिहारी या प्रतिहार नहीं टोकेगा।" ।
सचाई खोजें।" सुलोचन बेखटके रनिवास में गया। रानी स्नानागर मेंनहा रही
राजा को क्रोध तो था, पर यह क्रोध सुलोचन पर न होकर थी। उसने झरोखे से सुलोचन को आते देखा तो चिल्लाकर बोली
रानी पर था। राजा ने सोचा, 'सुलोचन के दोनों बड़े भाइयों की
बातें सत्य थीं। इसकी भी परख खरी होगी। दोष रानी का ही है, “यह कौन बदमाश आ रहा है, लुच्चा कहीं का?"
जिसने अब तक मुझसे भेद छिपाया।' क्रुद्ध-क्षुब्ध राजा हाथ में नंगी सुलोचन ने विनय भाव से कहा
तलवार लिए रानी के पास पहुँचा और बोला"कोई नहीं, महारानी जी मैं अन्धा सूरदास हूँ।"
"रानी! मैं एक ही वार में तुम्हारा सिर गर्दन से अलग कर "सूरदास के बच्चे! हरामखोर कहीं के, जल्दी वापस हो जा। दूंगा। सच-सच बताओ तुम किसकी पुत्री हो।" जानता नहीं, यह रनिवास है। मैं नहा रही हूँ।"
रानी सहम गई। घबराई और चकराई भी। उसने राजा से सुलोचन उल्टे पैरों वापस लौट गया और सीधा राजा के पास । विनय वाणी में कहाराजसभा में आया। आते ही राजा से बोला
"प्राणनाथ! आपको आज क्या हो गया है? क्या मेरे “राजन्! रानी की परख हो गई।"
माता-पिता से आप अनभिज्ञ हैं, जो ऐसा पूछ रहे हैं? मेरे पिता
रिपदमन और माता महारानी कनकवती को कौन नहीं जानता? मैं 'हो गई? इतनी जल्दी? अभी तो तुम गये थे।"
उन्हीं की इकलौती पुत्री हूँ।" सुलोचन ने कहा
राजा ने कहा"देर की जरूरत ही नहीं थी। अब आप एकान्त में चलें और सुनें।"
"यह तो तुमने वही बताया, जो मैं भी जानता हूँ। मुझे तो वह
सब बताओ, जो सच है, जिसे मैं अब जानना चाहता हूँ और जिसे राजा ने आग्रह किया
तुमने अब तक मुझसे छिपाया है। अगर सच-सच कहोगी तो "नहीं, एकान्त में नहीं। यहीं सबके सामने बताओ।"
तुम्हारा कुछ भी अनिष्ट नहीं होगा, यह मैं तुम्हें वचन देता हूँ।" सुलोचन फिर भी मौन रहा। राजा ने पुनः कहा
राजा की तिरछी नजरें और गर्दन पर झूलती तलवार को "डरो मत! जो भी बात हो निर्भय होकर बतओ।"
देखकर रानी बताने को मजबूर हुई। उसने बतायासुलोचन बोला
“स्वामी! मेरी माँ महारानी कनकवती सदा से ही निस्सन्तान
थीं। उनकी एक दासी थी भानुमती। दासी होते हुए भी भानुमती “पृथ्वीनाथ! रानी राजकुल की नहीं है। किसी दासी की पुत्री
मेरी माँ की अन्तरंग सखी थी। भानुमती सुन्दर थी, मेरे पिताजी से है।"
उसका सम्पर्क हो गया और मेरा जन्म दासी भानुमती के गर्भ से ही "बकते हो तुम। अपने शब्द वापस लो।" राजा ने क्रोध और । हुआ। मेरी माता निस्सन्तान थीं, अतः उन्होंने मुझे भानुमती से ले दृढ़ता के साथ कहा।
लिया और इकलौती राजपुत्री की तरह मेरा लालन-पालन बड़े सुलोचन ने पुनः बताया
लाड़-प्यार से हुआ। मेरे माता-पिता ने कभी सोचा भी नहीं कि मैं
उनकी पुत्री न होकर एक दासी की पुत्री हूँ। सारा संसार जानता "राजन्! आप क्रुद्ध हो गये। इसीलिए मैं बताने से इन्कार कर
है कि मैं राजा रिपुदमन की आत्मजा और रानी कनकवती की रहा था। जो सचाई थी, सो मैंने बता दी। चाहें तो अपना अभयदान
अंगजा हूँ। विवाह से कुछ पहले जब मेरी जन्मदात्री माँ दासी वापस ले लें और मुझे मृत्यु-दण्ड दें।"
भानुमती स्वर्गवासी हुई तो मेरी रानी माँ ने मुझे यह भेद राजा नरम पड़ा और नरमाई से बोला
बताया था। कभी ऐसा कोई प्रसंग ही नहीं आया, जो मैं आपको “सुलोचन! आँखों देखी बात मैं कैसे झुठला दूँ? मेरी रानी यह सब बताती। सचाई यही है अब आप चाहे मुझे त्यागें, चाहे एक बड़े राजा की राजकुमारी है और उसी को तुम दासी की अपनायें।" अंगजा बताते हो। देख-भाल कर मैंने विवाह किया था।"
राजा ने तलवार फेंक दी और रानी को वक्ष से लगाते हुए 1 सुलोचन ने कहा
कहा
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