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। महामनीषी उपाध्यायश्री का वाङ्मय-विमर्श )
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श्रद्धेय गुरुदेव उपाध्यायश्री पुष्करमुनि जी म. के लिए साहित्यकार, कवि, लेखक आदि विशेषण बहुत हलके पड़ते हैं। उनके विराट प्रातिभ ज्ञान और स्वतः स्फूर्त व्युत्पन्न मनीषा की मीमांसा करने के लिए शायद कोई उपयुक्त शब्द मिले तब तक हम उनको महामनीषी शब्द से ही सम्बोधित करना चाहेंगे।
पूज्य गुरुदेव ने लिखने के लिए कभी लिखा ही नहीं, और कविता करने के लिए कुछ रचा नहीं। भावों की उच्छल लहरें शब्दों का सहज सतरंगी परिवेश धारण कर जब कागज पर उतरती तो कभी वह कविता बन जातीं, कभी सूक्ति, कभी कहानी और कभी प्रवचन। तुलसी, सूर और कबीर की भाँति उनकी वाणी सहज काव्य थी। उनके वचन सहज ही सुवचन या प्रवचन बन जाते थे और उनकी लिखी गद्य पंक्तियाँ साहित्य का स्वरूप धारण कर लेती थी। इसलिए उपाध्यायश्री द्वारा रचित/ग्रथित, उद्गीत रचनाओं को साहित्य या काव्य जगत की बंधी बंधाई परम्परागत परिभाषा व नियमावली से तौलना या उन रूढ़ मूल्यों पर कसना उचित नहीं होगा। एक सन्त मनीषी की वाणी को उपमा आदि अलंकार व रस विधा से परखने की अपेक्षा जीवन मूल्यों की महिमा से ही तोलना अधिक उपयुक्त होता है। सन्त का वही श्रेष्ठ काव्य है, वही उत्तम साहित्य है, जिसमें उसकी अन्तर्वीणा का स्वर सहज सरगम में झंकृत होता है और मानवीय अन्तश्चेतना को स्वाभाविक रूप में स्पर्श करता है, स्पन्दित करता है।
उपाध्यायश्री का लेखन, प्रवचन, गायन बहुआयामी रहा है। विद्वान् मनीषी आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी ने उनके व्यक्त विचारों व लिखित भावों को विषय एवं विचार की दृष्टि से विभक्त कर अनेक आकार-प्रकारों में संग्रहीत किया है। कथा साहित्य, काव्य साहित्य, प्रवचन साहित्य, निबन्ध साहित्य, संस्कृत रचनाएँ आदि। उनके सम्पूर्ण वाङ्मय का अवगाहन करने के लिए तो सैकड़ों ग्रन्थों व पुस्तकों को पढ़ना होगा। यहाँ पर तो मात्र उस विशाल ज्ञान राशि की झलक दिखाने मात्र का एक लघु प्रयास किया जा रहा है। विविध दृष्टियों से सृजित उपाध्यायश्री के बहुआयामी साहित्य का यत्किंचित-रसास्वाद साहित्य पर कुछ विद्वानों की विवेचना और फिर उनके यहाँ प्रस्तुत किया गया है।
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