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। वाग् देवता का दिव्य रूप
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कथा कानन की कलियाँ
पूज्य गुरुदेव श्री एक जीवंत कथा कोष थे। जैन आगमों, ग्रन्थों से लेकर हजारों लोक कथाएँ उन्हें याद थीं। समय-समय पर प्रवचन एवं वार्तालाप प्रसंग में गुरुदेव रोचक एवं सामयिक कथाओं द्वारा विषय को रुचिकर तथा सुबोध-सहज बना देते थे। हंसी के शिक्षाप्रद चुटकुले तो बात-बात में उनके श्रीमुख से सुने जाते थे, जिससे श्रोता रसमय होकर तन्मय भी हो जाते थे।
जैन कथाएँ के रूप में १ से १११ भाग तक का शृंखला बद्ध कथा सागर तो पूज्य गुरुदेव की एक चिरस्मरणीय अद्भुत अमर सर्जना है। यहाँ प्रस्तुत है-जैन कथाएँ के भिन्न-भिन्न भागों से समुद्धृत चार रोचक कथाएँ।
-संपादक
2010008
में भी एक परिव्राजक स्थिर आसन से बैठा हुआ है। इस दृश्य को देखकर वह चमत्कृत हुई। अपने पति को प्रभावित करने का उसने
उचित अवसर देखा। वह अपने पति से बोलीधर्म चमत्कार में नहीं
"देखिए नाथ ! नीचे की ओर देखिए।" वत्सकावती देश की कौशाम्बी नगरी। यमुना नदी के किनारे विद्याधर ने नीचे की ओर देखा, बोलाबसी हुई। समृद्ध और सम्पन्न ।
"कहो, क्या कहना चाहती हो?" परिव्राजक सुप्रतिष्ठ श्याम सलिला यमुना की धार में कुशासन
“इस परिव्राजक को देख रहे हैं ?" पर बैठकर माला जपता। उसे जल-स्तंभिनी विद्या सिद्ध थी। इस सिद्धि और चमत्कार प्रदर्शन से जनता में उसका बड़ा मान था। “हाँ।" लोग उसके प्रति बहुत भक्ति रखते। यहाँ तक कि नगर-नरेश
"आपने देखा, यमुना के तीव्र जल-प्रवाह में भी कैसा स्थिर धनसेन भी उसके श्रद्धालु थे। उस पर आस्था रखते थे।
बैठा है। इस परिव्राजक का कितना तपःमाहात्म्य है? क्या अन्य परिव्राजक सुप्रतिष्ठ दिन-रात यमुना-जल में बैठा रहता, वहीं साधु ऐसा तप कर सकते हैं ?" विद्युद्वेगा ने कहा और परिव्राजक सो जाता। बाहर तो वह शरीर की आवश्यक क्रियाओं से निवृत्त । के तप की दुष्करता का वर्णन करने लगी-'माघ का महीना है, होने आता अथवा भोजन के लिए ही आता।
जल बर्फ के समान ठण्डा है, छूते ही शरीर में सिहरन दौड़ जाती भोजन भी वह राजा धनसेन के साथ ही करता। राजा धनसेन
है, लेकिन यह परिव्राजक योग साधना कर रहा है।" भी उसे बड़े प्रेम और मान-सम्मान के साथ भोजन कराते। किसी विद्याधर राजा विद्युत्प्रभ ने अपनी रानी विधुढेगा की बात सुनी साधारण घर से कैसे भोजन कर लेता इतना बड़ा सिद्ध-चमत्कारी और व्यंगपूर्वक मुस्करा दिया, कहा कुछ नहीं। परिव्राजक ! बेचारे सामान्य गृहस्थ तो परिव्राजक को भोजन कराने
पति की मुस्कराहट से विद्युद्वेगा आवेश में आ गई, बोलीकी आशा ही त्याग बैठे थे। जब परिव्राजक उनके घर आता ही
"क्या आप इस परिव्राजक के तप को दुष्कर नहीं मानते? नहीं था तो वे और करते भी क्या? सिर्फ दर्शन-प्रणाम करके ही संतोष कर लेते।
आप तो ऐसे मुस्करा दिये जैसे यह साधारण सी बात है।" लेकिन राजा धनसेन की रानी धनश्री सम्यग्दर्शन सम्पन्न
"है ही साधारण।" विद्याधर विद्युत्प्रभ ने कहा-“इसमें न तो श्राविका थी। उसकी उस परिव्राजक के प्रति कोई श्रद्धा न थी।।
कोई विशेष तपोबल है, न विद्याबल। जलस्तम्भिनी विद्या से इसने सिर्फ राजा धनसेन ही उस परिव्राजक के भक्त थे।
जल को स्थिर कर दिया है। यह विद्या तो बहुत ही साधारण है, जो
तुच्छ से तप से ही प्राप्त हो जाती है।" एक दिन परिव्राजक यमुना-जल में स्थिर बैठा हुआ माला जप
"आपको इस परिव्राजक का तप तुच्छ दिखाई दे रहा है!" रहा था। उसी समय रथनूपुर के विद्याधर राजा विद्युतत्प्रभ का विमान आकाश-मार्ग से निकला। उसके पार्श्व में ही उसकी पत्नी
विद्युवेगा का आवेश और बढ़ गया-"मैं कहती हूँ, ऐसा तपोबल विद्युद्वेगा बैठी थी। विधुढेगा परिव्राजकों की भक्त थी जबकि
और विद्याबल किसी अन्य में नहीं है।" विद्युत्प्रभ श्रमणोपासक था। वह द्वादशव्रती श्रावक था।
पत्नी का आवेश पति ने हँसकर ठंडा किया, फिर बोलाविधुढेगा की दृष्टि नीचे की ओर गई तो उसने देखा, यमुना "इसका तपोबल कितना है और विद्याबल कैसा है, वह मैं का जल किलोलें भरता हुआ बड़े वेग से बह रहा है किन्तु इस वेग तुम्हें अभी दिखा सकता हूँ। तुम कहो तो क्षण मात्र में इसकी
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