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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । देवी सरस्वती एक साथ इतने वरदान यदा-कदा, किसी-किसी ब्रह्मचर्य जगति तनुते, ब्रह्मचर्य प्रशस्तम्, GODS4 को ही प्रदान करती है।
यस्योत्कर्ष भुवनविदितं, कोऽपि वक्तुं न शक्तः। संस्कृत-साहित्य
रम्यं रूपं स्पृशति तृणकं, लज्जमानं परन्तु,
स्वस्यास्तित्वं कथमपि धरन् नृत्यतीदं तदग्रे॥ अमृत से छलकता हुआ कलश कहीं पड़ा हो और उसकी उपमा यदि खोजनी पड़े, तो संभवतः संस्कृत भाषा के श्रेष्ठ साहित्य
अर्थात्, संसार में प्रशस्त ब्रह्मचर्य ने महान् आश्चर्य फैला रखा से ही उसकी उपमा दी जा सकती है।
है। जिस ब्रह्मचर्य के विश्व-विख्यात वैशिष्ट्य को कोई भी कहने के
लिए समर्थ नहीं हो सका है। यहाँ तक कि रमणीय रूप भी लज्जित समस्त विश्व के मूर्धन्य मनीषियों ने प्राचीन संस्कृत साहित्य की
होकर तिनके तोड़ने लगता है। किन्तु यह अपने अस्तित्व को इसी श्रेष्ठता को मुक्त कंठ से सराहा है।
प्रकार रखकर ब्रह्मचर्य के समक्ष नृत्य करता है। अर्थात्, यह __यह दुर्भाग्य की ही बात है कि आज भारतवर्ष में संस्कृत भाषा ब्रह्मचर्य ही जगदुत्तम है। काफी उपेक्षित-सी ही चुकी है। यहाँ तक कि संस्कृत का उच्च तथा
आचार्य सम्राट् अमरसिंह जी महाराज के चरित्र के सम्बन्ध में शोधपूर्ण अध्ययन करने के लिए भारतीय छात्रों को विदेशों में
कवि अपनी विनययुक्त भावना इस प्रकार अभिव्यक्त करता हैजाना पड़ता है, विशेष कर जर्मनी तथा फ्रांस आदि देशों में।
सत्सुश्रेष्ठं श्रुतिमतियुतं ज्ञानिगुण्येषु वन्द्यम्, ____ संस्कृत भाषा भारत की एक अमर थाती है। इसी भाषा को यहाँ के मूर्धन्य मनीषियों ने गंभीर व गहन विषयों के प्रतिपादन हेतु
लक्ष्मीवन्तं प्रथित समिति, सिद्ध गुप्तिं प्रसिद्धम्। अपनाया-सभी प्रकार के सम्प्रदायवाद, पंथवाद, प्रान्तवाद या नत्वाचार्य श्रमणममरं सिंह मेवाभिधानं, जातिवाद आदि कृत्रिम भेदों को भुलाकर।
तस्यैवैतच्चरितमतुलं तायते वित्तवृत्तम् ॥ जहाँ वैदिक मनीषियों ने इस भाषा के भंडार को भरने का । अर्थात्, श्रुति और मति से युक्त, ज्ञानियों और गुणियों में प्रयास किया, वहीं जैन एवं बौद्ध विज्ञगण भी पीछे नहीं रहे। वन्दनीय, समितियों के पालक, गुप्तियों के साधक, प्रसिद्ध सन्तवर उन्होंने भी हजारों ग्रन्थ इस भाषा में लिखे। आचार्य हरिभद्र, आचार्य अमरसिंह जी महाराज को नमस्कार कर मुझ पुष्कर मुनि
आचार्य हेमचन्द्र, आचार्य मलयगिरि, आचार्य अभयदेव, आचार्य के द्वारा उन आचार्य महाराज का यह जाना हुआ अनुपम पवित्र सिद्धसेन दिवाकर, उपाध्याय यशोविजय जी, आचार्य अकलंक, चरित्र विस्तृत किया जा रहा है। आचार्य समन्तभद्र, विद्यानन्द प्रभृति शताधिक जैनविज्ञों ने संस्कृत
ज्येष्ठमल जी महाराज की स्तुति करते हुए आपश्री ने भाषा में दर्शन, साहित्य, व्याकरण, काव्य आदि विविध विषयों पर ।
लिखा हैजिन ग्रन्थों का सृजन किया, वह भारत की अमर सम्पदा है।
ज्येष्ठमल्ल गुरुदेवं श्रयते, इसी प्रकार बौद्ध विद्वान् अश्वघोष, वसुबन्धु, दिङनाग, नागार्जुन, धर्मकीर्ति आदि महान् विद्वानों ने भी संस्कृत भाषा में
भक्तजनो विजयोऽपि विजयते। न्याय, दर्शन आदि विषयों पर विपुल साहित्य का सृजन किया है। भजतु निरन्तरमतिकलिवीरम्, परम श्रद्धेय गुरुवर्य की ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के कारण
वचनसिद्ध गुरुदेव गभीरम्॥ प्रारम्भ से ही संस्कृत भाषा के प्रति रुचि रही थी। अपने विद्यार्थी महिमानं लभते रमणीयं, जीवन से ही वे संस्कृत भाषा में लेखन करते रहे। संस्कृत भाषा में
श्रियाः शरण्यं गुणभजनीयम्। उनकी अनेक रचनाएँ हैं। वे सभी रचनाएँ अभी तक अप्रकाशित हैं।
भजतु निरन्तरमतिकलि वीरम्, 'अमरसिंह महाकाव्य' का प्रथम संस्करण विक्रम संवत् १९९३ में
वचनसिद्ध गुरुदेव गभीरम्॥ प्रकाशित हुआ था, किन्तु बाद में आपश्री को लगा कि रचना अपूर्ण है, अतः उस पर पुनः नवीन रूप से लिखा और वह तेरह सर्गों में अर्थात्-जो ज्येष्ठमल जी गुरुदेव का आश्रय लेता है, वह भक्त स्रग्धरा, शार्दूल-विक्रीड़ित, 'वसन्त-तिलका प्रभृति विविध छन्दों में
| पुरुष एकाकी रहकर भी विजय प्राप्त करता है और इतना ही नहीं, लिखा गया है। इस महाकाव्य में रूपक, वक्रोक्ति, उपमा, उत्प्रेक्षा,
वह लक्ष्मी का शरण्य, गुणों से प्राप्त चित्ताकर्षक माहात्म्य का अनुप्रासादि विविध अलंकारों का भी प्रयोग हुआ है। आपश्री के अधिकारी होता है। उत्कृष्ट काव्यों में से यह एक है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में महाकाव्य के सभी गुण विद्यमान हैं। आचार्य प्रस्तुत काव्य में आपश्री ने ब्रह्मचर्य का विश्लेषण करते हुए | दण्डी ने काव्यादर्शन में, व्यास ने 'अग्निपुराण' में, विद्यानाथ ने एक स्थान पर लिखा है
'प्रतापरूद्र यशोभूषा' में, आचार्य हेमचन्द्र ने 'काव्यानुशासन' में, REPEताततप्तब्य Vain Edijcaudos intemnational Far Piyvana & Personal wing only s
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