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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । कालिन्दी के काले जल ने
-जैन सन्त की परिभाषा आपने इस प्रकार दी हैकिया नहीं किसको काला?
महाव्रतों की कठिन साधना, नव विधि से जीवन पर्यन्त। क्यों न निराला होगा उसका
करने वाले महापुरुष को, माना जाता जैनी सन्त॥ सुष्टु स्वरूप बड़ा आला। केवल यमुना का जल काला,
समता सहित, रहित ममता से, कालापन पुर में न कहीं,
विहरण करता भूतल पर। अथवा कालापन केशों में
नहीं किसी के बल पर जीता, कालापन उर में न कहीं।
जीता है अपने बल पर॥ सरसता, रमणीयता, शब्द और अर्थ में गाम्भीर्य-ये काव्य के
आचार्य अमरसिंहजी का वर्णन करते हुए अनुप्रासों की उत्तम तात प्रमुख गुण हैं। जो काव्य रसयुक्त हो और दोषमुक्त हो, वही
छटा दर्शनीय है26 रमणीय है। काव्य में रमणीयता और सुन्दरता लाने हेतु प्राचीन
काल में अलंकारों का प्रयोग विशेष रूप से होता रहा है। गुरुदेवश्री उत्तम आकृति, उत्तम व्याकृति, ने अलंकारों को कभी उद्देश्य तो नहीं माना, किन्तु उनके काव्य में
उत्तम व्यवहृति, मति उत्तम। 6 भी यथास्थान सहज रूप से अनुप्रास, उदाहरण, उपमा, रूपक
उत्तम उपकृति, धृति अति उत्तम, प्रभृति अलंकार आये हैं, जिन्होंने उनके काव्य को अधिक सौंदर्य
उत्तम व्यापृति, गति उत्तम॥ D. प्रदान किया है। कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं
अहिंसा का विश्लेषण करते हुए कवि ने बहुत ही सुन्दर सत्पुरुषों के स्पर्श से होती धारा पवित्र।
भाव-शब्दों की लड़ियों की कड़ियों में पिरोये हैंबनता वायु सुगन्धमय पाकर उत्तम इत्र॥ (उपमा)
तत्त्व अहिंसा से सात्विकता, फूल सूंघने फल खाने को, गाने को आकाश मिला।
सात्विकता में सत्व निवास। कौन पूछता पोस्ट कौन-सा और कौन-सा लिखें जिला॥
सत्व सहित जीवन का होता (उदाहरण)
बहुत महत्व, विशेष विकास॥
स्वतन्त्रता, सम्पत्ति सत्व में, बोले बिना, बिना डोले ही और बिना खोले ही आँख।
(अनुप्रास)
अतः अहिंसा धर्म प्रधान। धर्म अहिंसा से सहमत हैं, x
आगम, वेद, पुराण, कुरान॥ जम्बू की गति में जब देखी अजब गजब वाली मस्ती।
सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य व्रत, राजहंस, ऐरावत डरकर, छोड़ गए शहरी बस्ती॥ (रूपक)
एक अहिंसा के हैं अंग। आर्य वज्रस्वामी के पवित्र चरित्र में दीक्षा का वर्णन करते हुए
बिना अहिंसा फीका लगता, 60 जो अनुप्रास सहज रूप से प्रयुक्त हुए हैं, वे प्रेक्षणीय हैं
धर्म-रु उपदेशों का रंग। दीक्षा-शिक्षा गुरु से पाई, भिक्षा पाई लोगों से।
जैन श्रमणों की वेशभूषा में मुखवस्त्रिका का प्रमुख स्थान है। पूर्ण तितिक्षा मुनि ने पाई, निज अनुकूल प्रयोगों से॥
जैन श्रमण मुखवस्त्रिका क्यों धारण करते हैं, यह बात कवि ने 2002 युवक अमरसिंह ने संसार की स्थिति का चित्रण करते हुए सरल और सरस शब्दों में बताया हैRR अपनी मातेश्वरी से कहा कि संसार में प्रत्येक जीव के साथ अनन्त न बार संबंध हो चुका है, फिर बिछुड़ने और मिलने पर शोक और
मुख्य चिह्न मुखवस्त्रिका, जैन सन्त का जान। आनन्द किस बात का? कवि ने इसी को अपने शब्दों में व्यक्त
बचा रही है प्रेम से, वायुकाय के प्राण ॥ 6 किया है
वह गिरने देती नहीं, सन्मुख स्थित पर थूक। 930 या ऐसा जीव नहीं है जग में, जिससे जुड़ा न हो संबंध।
कहती अपने वचन से कभी न जाना चूक॥ 15.90.00
मिलने और बिछुड़ने पर फिर कैसा शोक तथा आनन्द? 388
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