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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । महर्षि वाल्मीकि को आदिकवि मानकर। क्रौंच पक्षी के जोड़े पर | पंचविंशति, पैंतीसवाँ, अड़तालीसवाँ, उनपचासवाँ, छप्पनवाँ, शिकारी ने बाण का प्रहार किया, जिससे नर क्रौंच छटपटाने लगा। । अठावनवाँ, उनसठवाँ, साठवाँ, इक्सठवाँ, बासठवाँ, तिरेसठवाँ, उसकी दारुण वेदना और वियोग में मादा क्रौंच करुण क्रन्दन करने बहत्तरवाँ, तिहत्तरवाँ, चौहत्तरवाँ, तिरासीवाँ, पिचयासीवाँ, लगी, जिसे देखकर वाल्मीकि के हत्तन्त्री के तार झनझना उठे और छियासीवाँ, निव्यासीवाँ और नब्बेवाँ भाग उपन्यास के रूप में हैं। काव्य का सृजन हो गया-“मा निषाद प्रतिष्ठायां त्वमगमः शाश्वती / शेष भागों में कथाएँ हैं। समा......।" किन्तु कथा या कहानी का इतिहास कितना प्राचीन है,
उपन्यास व कथाओं का मूल उद्देश्य नैतिक भाव जागृत करना यह अभी तक अज्ञात है।
है। आपश्री के उपन्यासों व कथाओं की शैली अत्यधिक रोचक है। पाश्चात्य और पौर्वात्य विज्ञों का अभिमत है कि भारतीय
पढ़ते-पढ़ते पाठक झूमने लगता है। आपके कथा-उपन्यासों का मूल साहित्य में ऋग्वेद सबसे अधिक प्राचीन है। ऋग्वेद साहित्य का
साहित्य का स्रोत प्राचीन संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और जैन रास साहित्य रहा आदि ग्रन्थ है। किन्तु कथा साहित्य ऋग्वेद से भी प्राचीन है।
है। आपने उन प्राचीन कथाओं को आधुनिक रूप में प्रस्तुत इतिहास विज्ञों का मानना है कि ऋग्वेद की रचना भारत में आर्यों
किया है। के आगमन के पश्चात् ही हुई, किन्तु आर्यों के आगमन से पूर्व भारत में विकसित रूप से धार्मिक और दार्शनिक परम्पराएँ थीं ।
आपकी प्रत्येक कथा रोचक व सरस है। मानव स्वभाव व और उनका साहित्य भी था। वह साहित्य भले ही लिखित रूप में न }
जीवन की यथार्थता के रंग-बिरंगे चित्र प्रस्तुत करती है। प्रबुद्ध रहकर मुखाग्र रहा हो। वेद भी जब रचे गए तब लिखित नहीं थे।। पाठक के मन को झकझोर कर पूछती है कि तू कौन है? तेरा उन्हें एक-दूसरे से सुनकर स्मृति में रखा जाता था। अतः वेदों को । जीवन वासना के दलदल में फँसने के लिए नहीं है। यदि तू श्रुति भी कहा जाता है।
कर्मबन्धन करेगा तो उसके कटुफल तुझे ही भोगने पड़ेंगे। यदि तूने इसी तरह जैन साहित्य भी सुनकर स्मरण रखने के कारण श्रुत
श्रेष्ठ कर्म किए तो उसका फल श्रेष्ठ प्राप्त होगा। यदि कनिष्ठ कर्म कहलाता रहा है। कथा या कहानी श्रुति और श्रुति से भी प्राचीन
किए तो उसका फल अशुभ प्राप्त होगा। कर्मों का फल निश्चित रूप है।
से सभी को भोगना पड़ता है। भोक्ता के हाथ में कोई शक्ति नहीं कि
उन्हें भोगे बिना रह सके। व श्रद्धेय गुरुवर्य ने कथा-साहित्य में उपन्यास और कहानी दोनों ही लिखे हैं। उपन्यास में जीवन के सर्वांगीण और बहुमुखी चित्र
आपने कथाओं में पूर्वजन्म का भी चित्रण किया है। जिसके विस्तार से अंकित किए जाते हैं। यही कारण है कि उपन्यास की
कारण व्यक्ति को इस जन्म में सुख और दु:ख प्राप्त होते हैं। लोकप्रियता तेजी से बढ़ रही है। साहित्य के क्षेत्र में उपन्यासों की
कथाओं में इस बात पर भी बल दिया गया है कि अशुभ कृत्यों से बाढ़-सी आ रही है। आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने लिखा है
बचो। जो व्यवहार तुम अपने लिए चाहते हो, वैसा ही व्यवहार "उपन्यास ने तो मनोरंजन के लिए लिखी जाने वाली कविताओं
दूसरों के लिए भी करो। इन कथाओं में जीवनोत्कर्ष की पवित्र एवं नाटकों का रस-रंग भी फीका कर दिया है। क्योंकि पाँच मील प्रेरणाएँ दी गई हैं। व्यसनों से बचने के लिए और सद्गुणों को दौड़कर रंगशाला में जाने की अपेक्षा पाँच सौ मील दूर की पुस्तकें
धारण करने के लिए सतत् प्रयास किया गया है। मँगा लेना आसान हो गया है जो रंग-मंच को अपने पत्रों में समेटे __इन कथाओं के सभी पात्र जैन-कथा साहित्य के निर्धारित हुए है।"
प्रयोजन के अनुरूप ढाले गए हैं। इसमें कोई राजा है, रानी है, मंत्री उपन्यास सम्राट् प्रेमचन्द ने उपन्यास की परिभाषा देते हुए । है, राजपुत्र है, सेठ है, सेठानी है। कोई चोर, कोई दूकानदार तो SDE लिखा है-"मैं उपन्यास को मानव-चरित्र का चित्र मात्र समझता हूँ। कोई सैनिक है। इस प्रकार सभी पात्र अपने-अपने वर्ग का
मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही प्रतिनिधित्व करते हैं। स्वकृत कर्म का फल भोगते हैं। कर्म के DAE उपन्यास का मूल तत्त्व है।" इस परिभाषा के प्रकाश में गुरुदेव के अनुसार उनका जीवन-यापन होता है और अन्त में किसी न किसी 20 कथा-साहित्य को दो भागों में विभक्त कर सकते हैं-(१) उपन्यास, का उपदेश श्रवण कर या किसी अन्य निमित्त से वे संसार से और (२) कहानी साहित्य।
विरक्त हो जाते हैं। श्रमण-जीवन अथवा श्रावक-जीवन को स्वीकार जैन श्रमण होने के नाते आपके उपन्यास भले ही आधुनिक
। कर मुक्ति की ओर कदम बढ़ाते हैं। उपन्यासों की कसौटी पर खरे न उतरें, तथापि उन उपन्यासों में इन कथाओं में जीवनोत्कर्ष चारित्र द्वारा होता है। कषायों की दार्शनिक, सामाजिक और धार्मिक विषयों की गंभीर गुत्थियाँ मन्दता, आचार की निर्मलता के स्वर झंकृत हुए हैं। सीधे, सरल व सुलझायी गई हैं। आपश्री ने "जैन-कथाएँ" नामक कथामाला के नपे-तुले शब्दों में वे पात्र की विशेषताएँ बतलाते हैं। इन कथाओं के
अन्तर्गत कथा एवं उपन्यास लिखे हैं जो एक सौ ग्यारह भागों में वर्णनों में उतार-चढ़ाव नहीं है। जो सज्जन हैं, वे जीवन की सान्ध्य एक प्रकाशित हुए हैं। प्रथम, चतुर्थ, षष्टम, नवम, दशम, चतुर्दश, 1 बेला तक सज्जन ही बने रहे और दुर्जन व्यक्तियों का मानस भी
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