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तल से शिखर तक
समन्वयात्मक विचारों से वे अत्यन्त प्रभावित हुए। बम्बई में आगम प्रभाकर स्थविर श्री पुण्यविजयजी म. से मिलकर आपने आगमों के अनेक विषयों पर विचार-विमर्श किया। आपकी जिज्ञासा और विनयशीलता को देखकर वे गद्गद हो गए। मतभेद और सम्प्रदाय भेद होते हुए भी आप उदयपुर में रुग्णावस्था में विराजमान श्रद्धेय पूज्य श्री गणेशीलाल जी म. को सविनय वंदना करके सुखसाता पूछने गए। आपकी विनम्रता देखकर उनका हृदय प्रफुल्लित हो उठा। ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जिनमें अध्यात्मयोगी के योग विनयादि गुण आपमें सहज प्रादुर्भूत हुए।
अध्यात्मयोगी के जीवन में सरलता और निश्छलता का गुण
अध्यात्मयोगी के जीवन में सरलता, निश्छलता एवं निर्दम्भता आदि गुण अनिवार्य हैं। इन्हीं गुणों से ओत-प्रोत होने पर अध्यात्म विकास यात्रा निर्विघ्न होती है। उपाध्यायप्रवर श्री के जीवन में सरलता, निश्छलता एवं निर्दम्यता कूट-कूट कर भरी थी। वे जैसे बाहर थे, वैसे ही अन्दर थे, जैसे अंदर में थे, वैसे ही बाहर में थे। उन्हें छल-कपट करना, मायाचार करना पसन्द न था । उपाध्याय पद से विभूषित होने पर भी आपने सरलता, सीम्यता और निष्कपटता आदि गुणों को आत्मसात् कर लिया था।
अध्यात्मयोगी के जीवन में दया आदि गुणों का बसेरा
अध्यात्मयोगी का जीवन सर्वभूतान्मभूत होने से उसमें दया, करुणा, अनुकम्पा, सहृदयता और सहानुभूति आदि गुण अवश्य होने चाहिए। स्व. उपाध्यायश्री के जीवन में भी मानो इन गुणों ने अपना बसेरा कर लिया था। वे जहाँ भी किसी प्राणी का जीवन दु:खित या पीड़ित देखते अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी उसकी पीड़ा मिटाने के लिए उद्यत हो जाते थे।
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एक बार आप रायपुर (राजस्थान) का वर्षावास व्यतीत करके बिलाड़ा की ओर पधार रहे थे। रास्ते में एक सघन अटवी और बाणगंगा नदी पड़ती है। तृषातुर पशु-पक्षी यहाँ अपनी तृषा मिटाने आते थे किन्तु यहाँ झाड़ियों में कुछ शिकारीगण उन पशु-पक्षियों का शिकार करने की ताक में छिप कर बैठे थे। वे ज्यों ही बाहर निकले, आपश्री ने उन्हें पहचान कर प्राणियों की रक्षा का उपदेश दिया। उसका ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने सदा के लिए शिकार करने का त्याग कर दिया।
लोनावला की निकटवर्ती कार्ला-गुफा के पास आदिवासियों की आराध्यदेवी का मंदिर है। करुणाशील अध्यात्मयोगी श्री पुष्कर मुनि जी एक दिन मध्याह्न में वहाँ से गुजरे तो देखा कि कुछ आदिवासी लोग देवी के आगे बकरे की बलि करना चाहते थे। आपने उन्हें युक्तिपूर्वक समझाया कि बकरे की बलि करना कितना बुरा और वैर परम्परावर्द्धक है। फिर भी वे नहीं मान तो आपने उनके सामने खड़े होकर कहा लो, नहीं मानते हो तो मेरी बलि ले लो, बकरे को छोड़ दो। इस आदिवासियों का हृदय परिवर्तन हो गया। उन्होंने उसे बकरे को अभयदान देकर कहा- "बाबा! अब हम सभी देवीमाता के आगे बकरे आदि प्राणी की बलि नहीं चढ़ायेंगे।"
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सन् १९७५ में पूना में बहुत तेज वर्षा हुई। उसके कारण झोंपड़ पट्टी में रहने वाले बेघरबार हो गए। उनकी दयनीय स्थिति देखकर आपका दयाहृदय द्रवित हो उठा। आपने लौटकर अपने प्रवचन में उन व्यक्तियों की दयनीय स्थिति का चित्रण प्रस्तुत किया। स्थानीय संघ ने तत्काल “श्री पुष्कर गुरु सहायता संस्था" की स्थापना की और उस संस्था के माध्यम से उन विस्थापित जनों को सहायता प्रदान की गई और उनकी आजीविका की भी व्यवस्था की गई। आपने उन लोगों को प्रेरणा देकर मद्यपान एवं मांसाहार का त्याग कराया।
सन् १९८१ में आपका वर्षावास "राखी" था। उस वर्ष राजस्थान में भयंकर दुष्काल था, जिस कारण मानव एवं पशु भूख के मारे मर रहे थे। आपने दुष्काल पीड़ितों को सहायता प्रदान करने की प्रेरणा की। जिसके फलस्वरूप सेठ रतनचंद जी रांका प्रभृति उदार व्यक्तियों के प्रयत्न से लाखों रुपयों का फण्ड एकत्रित हो गया। जिससे दुष्काल पीड़ितों को जीने की उपयोगी साधन-सामग्री देकर उनका दुःख दूर किया गया। आपका अनुकम्पा प्रवण हृदय इस प्रकार की करुणा एवं दया की प्रेरणा के कारण अध्यात्म यात्रा में आगे से आगे बढ़ता जा रहा था। अध्यात्मयोगी का मूलमंत्र
परीषह-उपसर्ग-सहन
परीषह और उपसर्ग को समभावपूर्वक सहना तो अध्यात्मयोगी का मूलमंत्र है। वह कष्टों, परीषहों और उपसर्गों को हँसते-हँसते सहन करता है, किसी से शिकायत या कष्टदाता के प्रति प्रतिक्रिया न तो मुँह से व्यक्त करता है और न मन में उद्विग्नता लाता है, बल्कि अपना अहोभाग्य मानता है कि मुझे निर्जरा (कर्मक्षय) करने का सुअवसर दिया। अध्यात्मयोगी श्री पुष्कर मुनि जी म. के जीवन में भी ऐसे अनेक प्रसंग आए, जब उन्होंने कष्ट सहिष्णुता का परिचय दिया।
सन् १९४२ में आप कुबेरा से नागौर पधारे थे, रास्ते में मुंडवा कस्बा पड़ता है, वह माहेश्वरी लोगों के अनेक घर हैं। आपने भिक्षा के लिए एक माहेश्वरी के घर में प्रवेश किया। जैन श्रमणों से बिल्कुल अपरिचित उस माहेश्वरी ने आपको प्रवेश करने से रोका और दो चार खरी-खोटी सुनाई "गर्म पानी हो तो हम ले सकते हैं, ऐसा कहते ही वह क्रोध में तमतमाता हुआ बोला," क्या तेरे बाप ने यहाँ गर्म पानी कर रखा है? आपने नम्रभाव से उत्तर दिया "भारतीय दर्शनों के अनुसार आप इस जन्म में नहीं, किन्तु किसी जन्म में मेरे पिता रहे होंगे।" यह सुनकर सेठ कुछ नरम होकर अंदर सेठानी से गर्म पानी के विषय में पूछने गया तो उसने भी वैसी ही कोमुमुद्रा में उत्तर दिया। आपने सुना तो मुस्कराते हुए कहा- "सेठ जी आज मुझे अपनी मां भी मिल गई और पिता भी। इसलिए पानी नहीं तो रोटी बनी होगी तो मिल जाएगी।" आपकी इस सहिष्णुता और मुस्कान का सेठ-सेठानी दोनों पर अचूक प्रभाव पड़ा। भक्ति विभोर होकर उन्होंने आपको भिक्षा दी।
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