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| तल से शिखर तक
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एक बार पूना में आप विराजित थे। उस समय वहाँ पू. उपाध्यायश्री का भी जन्म वंश विद्याजीवी ब्राह्मण कुल था और सूरजमल जी म., पं. श्रीमल्लजी म., श्री चुन्नीलालजी म. और मैं, जन्म का नाम था-अम्बालाल। यों हम चार ठाणा साधु भी वहीं थे। वहाँ भी वे हमसे प्रेम से मिले,
विक्रम सर्वत् १९८१ अर्थात् खष्टादि १९२४ ज्येष्ठ शुक्ला साथ में भी रहे। उन्होंने हमारे प्रति कभी अरुचि, उदासीनता या ।
दशमी के दिव्य दिवस को तत्कालीन पूजनीय गुरुदेव श्री ताराचन्द्र घृणा आदि नहीं दिखाई। एक बार वि. सं. २००३ में जब पं. ।
जी महाराज के पवित्र सान्निध्य में भागवती दीक्षा ग्रहण की। श्रीमल्लजी म. के साथ मेरा चातुर्मास इन्दौर में बग्घीखाने में था, ।
प्रदीक्षित अम्बालाल-श्री पुष्करमुनि बन गए। अपनी मुनिचर्या में तब आपका अपनी शिष्यमंडली के साथ मोरसल्ली गली में चातुर्मास
दीक्षित प्रज्ञापुरुष ने शरीर-साधना और चित्त-साधना में मनसा, था। हमारे साथ वे प्रेम से मिलते और वार्तालाप करते थे। एक दिन ।
वाचा, कर्मणा स्वयं को खपा दिया और अन्ततोगत्वा उल्लेखनीय स्थण्डिल भूमि से वापस लौटते समय अकस्मात् बहुत जोर से वर्षा | बेजोर सिटता उपला काली। अपने
बेजोड़ सिद्धता उपलब्ध करली। अपने स्वाध्याय सातत्य के होने लगी। हमारे और उन सबके कपड़े भाग गए थ। वर्षों से परिणामस्वरूप आपश्री प्राकत, संस्कत, कन्नड, मराठी, गजराती.
भीगने के कारण वर्तमान आचार्यश्री (जो उस समय बालक ही थ) । हिन्दी तथा राजस्थानी आदि अनेक भाषाओं के ज्ञाता बन गए। | को ज्वर हो गया था। मैं प्रेम से उन्हें बग्धीखाने में जहाँ हम ठहरे हुए थे, ले आया और सुला दिया। शाम को तबियत ठीक हो जाने
जैन संत की चर्या सदा समिति सम्पृक्त होती है। उनके चरण पर स्व. उपाध्यायश्री जी म. आए और उन्हें अपने साथ मोरसल्ली
चलते हैं तो ईर्या समिति चरितार्थ होती है। वे जब बोलते हैं तो गली स्थानक में ले गए। उन्होंने जाते समय कहा-“मगनजी!
उनके वचन वस्तुतः प्रवचन बन जाते हैं। वे जब आहार ग्रहण धन्यवाद है आपको! आपने बहुत अच्छा कार्य किया।" मैंने मन ही
करते हैं तो षटरस एकमेव होकर विरस किन्तु सरस हो जाता है। मन कहा-कितने सहृदय और मिलनसार हैं, ये?
निष्क्रमण और प्रतिष्ठापन समिति-व्यवहार में उनकी चर्या निरीह प्राणियों की विराधना न होने पावे अस्तु सर्वथा सजग और प्रमाद-मुक्त रहती है। उपाध्यायश्री की चर्या प्रायः समिति सम्पन्न थी।
उनकी चर्या अहिंसामुखी थी। उनका जीवन ज्योतिर्मय था। सरलता, साधुता के पर्याय : उपाध्यायश्री पुष्करमुनि ।
सहजता और आर्जवी आचरण उनकी जीवन शैली की विशेषताएँ
थीं। वे विचारों में अनाग्रही थे और थे अभिव्यक्ति-व्यवहार में -विद्यावारिधि डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया सर्वथा स्याद्वादी। उनका हृदय कुसुम से भी कोमल किन्तु शुभ एम. ए., पी-एच. डी., डी. लिट्
संकल्प में वज्र से भी था कठोर।
उपाध्यायश्री ने जीव और जगत को आगम की आँखों से एक जिज्ञासु एक साधक के समीप आकर अपनी जिज्ञासा
देखा-परखा था। उनकी दृष्टि में जगत कभी मिथ्या नहीं रहा, व्यक्त करते हुए पूछता है, “भदन्त ! संसार जानना चाहता हूँ।" |
मिथ्या तो मानव की मान्यता होती है। उनके विचार और व्यवहार साधक ने जिज्ञासु को अपनी आँखों में आप्लावित कर उत्तर दिया, "भले प्राणी, यदि आप संसार जानना चाहते हैं तो आपको एशिया
में देव, शास्त्र और गुरु के प्रति अनन्य श्रद्धान् और सम्मान मुखर जानना होगा। यदि आप एशिया जानना चाहते हैं, तो आपको
हो उठे थे। देव की वंदना साधक को सर्वथा स्वावलम्बी बनाती है।
शास्त्र तभी सार्थ होते हैं जब वे स्वाध्यायी में चरितार्थ हो जाते हैं। भारतवर्ष जानना होगा। यदि आप भारतवर्ष जानना चाहते हैं तो आपको राजस्थान प्रदेश को जानना होगा और यदि आप राजस्थान
गुरु की गरिमा तभी सार्थक होती है जब वह शिष्य को उन्मार्ग से
विमुख कर सन्मार्गमुखी बनाती है। उपाध्यायश्री शुद्ध देव, शास्त्र जानना चाहते हैं तो आपको स्थानकवासी श्वेताम्बर जैन श्रमणसंघ
और गुरु के गुणों से समप्रभावित थे। वे वस्तुतः रत्नत्रय की के महान अध्यात्मयोगी, जप-ध्यान के सिद्ध साधक, वरिष्ठ उपाध्यायश्री पुष्करमुनि म. सा. को जानना होगा। उपाध्यायश्री ज्ञान प्रभापूर्ण प्रयोगशाला थे।
be और साधना के शिखर पुरुष थे।
अनेक मानवीय उदात्त गुणों के धारी सदाचारी महापुरुष विशेष किन्तु विशाल देह यष्टि, सृष्टि का प्रभापूर्ण भामण्डल,
उपाध्यायश्री पुष्करमुनि मेरे परिचय में किस प्रकार आए, यह भी आगमी ज्ञानालोक से विस्फाटित नेत्रावलि, मुख मण्डल पर धवल
एक सुखद संयोग रहा। उनके जीवन-सान्निध्य पर आधारित अनेक श्वेत पट्टिका, उत्तम उत्तरीय में समेटे समग्र कंचन-सी काया पूज्य
संस्मरणों के सार-सारांश की संक्षिप्ति यहाँ इस प्रकार प्रस्तुत करना
वस्तुतः हमारा अभिप्रेत है। ताकि उनकी चर्या के अनेक उपयोगी उपाध्यायश्री के रूप को स्वरूप प्रदान करती है। विक्रम संवत् १९६७ आश्विन शुक्ला चौदश का भव्य काल कण उदयपुर के
तथा अद्भुत गुणों का उजागरण हो सके। अन्तर्गत गोकुन्दा नामक उपनगर के निकटवर्ती साधारणतः किसी कार्य के सम्पादन के लिए उपादान और निमित्त शक्तियों असाधारण ग्राम सिमटारा की भव्यभूमि आपश्री को जन्म देकर का समीकरण आवश्यक होता है। अभिनन्दन-ग्रंथों में मैं प्रायः धन्यता को प्राप्त हुई। भगवंत देव महावीर के गणधरों की भाँति । लिखा करता हूँ। किन्तु उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रंथ के
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