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तल से शिखर तक
२५९ । साधना करते हैं। भारतीय संस्कृति में ऐसे महापुरुष अध्यात्म पुरुष के लिए ही उपयुक्त है, मेरे लिए तो यह मोटी खद्दर की चद्दर ही के नाम से विश्रुत हैं, वे समाज, धर्म और राष्ट्र के लिए पावन पर्याप्त है, श्रेष्ठीप्रवर की आँखों में आंसू थे पर गुरुदेव इन्कार हो प्रेरणा स्रोत होते हैं।
गए थे, अनुनय-विनय करने पर भी उन्होंने वह पश्मीना स्वीकार परम श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी म.
नहीं किया, श्रेष्ठीप्रवर अंत में गुरु के चरणों में झुक गया। धन्य है एक ऐसे ही अद्भुत अध्यात्मयोगी संत थे, जिनकी अध्यात्म साधना ।
आपकी निष्पृहता को, धन्य है आपकी संयम-साधना को, धन्य है से उस युग में जहाँ भौतिकवाद की चारों ओर चकाचौंध थी,
आपकी आध्यात्मिक मस्ती को। आधुनिक विज्ञान की नित नई उपलब्धियों ने मानव को बहिर्मुखी जीवन में ऐसे अनेकों प्रसंग आए जहाँ गुरुदेवश्री की अनासक्ति बना दिया था, उस युग में वे जनमानस में अध्यात्म ज्योति जगाने सहज रूप से निहारी जा सकती थी, इसीलिए बम्बई के का भरसक प्रयास कर रहे थे, श्रद्धेय गुरुदेवश्री स्थानकवासी जैन
स्थानकवासी जैन समाज ने उन्हें अध्यात्मयोगी की उपाधि से समाज के एक प्रतिभाशाली युग पुरुष थे, वे अपने युग के प्रकाण्ड
समलंकृत किया था। विद्वान और परम् विचारक संत थे।
ध्यान की प्रेरणा श्रद्धेय गुरुदेवश्री की स्मृतियाँ मानस पटल पर चमक रही हैं, सन् १९४६ में आपका वर्षावास धार में था। धार को सुप्रसिद्ध वे स्मृतियाँ उनके उदात्त और निर्मल हृदय की परिचायिका हैं, वे साहित्य और काव्यप्रेमी महाराज भोज की राजधानी होने का गौरव बहुत ही निस्पृह थे। बम्बई का प्रसंग है, पालनपुर के एक प्राप्त है। यह भी किंवदन्ती है कि कविकुल गुरु कालिदास ने भी कोट्याधीश श्रेष्ठी ने गुरुदेवश्री से प्रार्थना की, भगवन् मैं गतवर्ष अपने अमर साहित्य का सृजन इसी नगरी में किया था। कश्मीर गया था और वहाँ से ३५ हजार का बहुमूल्य पश्मीना
यह वही नगरी है जहाँ पर स्थानकवासी समाज के ज्योतिर्धर लेकर आया हूँ, यह तो बम्बई नगरी है, यहाँ तो ऊनी वस्त्र का
आचार्यश्री धर्मसिंह जी महाराज ने धर्म की प्रभावना हेतु अपने बहुत ही कम उपयोग होता है पर गुरुदेव आपश्री तो एक स्थान से शिष्य के विचलित होने के कारण स्वयं ने संथारा कर समाधिमरण दूसरे स्थान पर, एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में पधारते हैं, मेरी
। प्राप्त किया था। वह पट्ट, जिस पर आचार्यश्री ने संथारा किया था, हार्दिक इच्छा है कि वह पश्मीना जो मैं अपने लिए लाया था वह उस पर प्रायः सन्त व सतीगण शयन नहीं करते हैं। किन्तु आपश्री आपके श्री चरणों में समर्पित करूँ। कृपया मेरी तुच्छ भेंट स्वीकार उस पर चार महीने सोये। आपको स्वप्न में आचार्यश्री के दर्शन भी करें। गुरुदेवश्री ने कहा-श्रेष्ठीप्रवर मैं तो गरीब साधक हूँ, इतना हुए और उन्होंने आपको ध्यान-साधना आदि के सम्बन्ध में प्रबल बहुमूल्य पश्मीना मैं नहीं ओढ़ सकता, वह तो आप जैसे श्रेष्ठीवर्य प्रेरणा प्रदान की।
- मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। मन के अश्व पर सवार साधक क्षण-क्षण इतना गिरता है कि पहली नरक
से गिरता-गिरता सातवीं तक पहुँच जाता है और मन के तनिक इशारे से इतना ऊँचा उठता है कि क्षण में ही केवलज्ञान व केवलदर्शन प्राप्त कर लेता है। मन जब भटक जाता है तो चाहे जितनी दीर्घकालिक साधना हो, उसे बचा नहीं सकती और जब मन स्थिर हो जाता है तो दीर्घकाल तक भोगे हुए विषय-भोग भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। ऋतु का सुहावनापन मन की प्रसन्नता पर अवलम्बित है। मन में शान्ति हो तो दुर्दिन भी सुदिन लगते हैं।
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-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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