________________
ESDA
में
ॐ
तल से शिखर तक
२६३ । अधिक औषधि-सेवन को आप उचित नहीं मानते थे। आप आहार के पश्चात् आपश्री हल्का विश्राम करते थे। उसी यथासम्भव औषधि नहीं लेते थे और भोजन में कम खाना तथा अवधि में आप ऐसे साहित्य का अध्ययन भी करते थे जो विश्राम संख्या में भी कम पदार्थ ही लेना आप उचित समझते थे। आपका में भार-स्वरूप न बने। इस प्रकार एक पंथ, दो काज निबट जाया मानना था कि भोजन की मात्रा जितनी कम होगी, उतनी ही करते थे। साधना में स्फूर्ति रहेगी। अधिक खाने से आलस्य और प्रमाद की
हल्के, थोड़े समय के विश्राम के पश्चात् आपश्री साहित्य-लेखन अधिकता होगी।
तथा अध्यापन करते थे, एवं आगन्तुकों से विचार-चर्चा भी। आपश्री साधारणतया रात्रि को दो बजे उठ जाते थे। सर्वप्रथम कार्य होता था ध्यान और जप की साधना करना। उसके पश्चात्
सायंकाल सूर्यास्त के पश्चात् पुनः आत्मालोचन तथा आठ बजे आपश्री आत्मालोचन करते थे, जिसे जैन भाषा में 'प्रतिक्रमण'
से नौ बजे तक जप व ध्यान के बाद फिर कुछ समय विचार-चर्चा कहते हैं।
के उपरान्त प्रायः दो बजे तक शयन करते थे। सूर्योदय होने के पश्चात् आप गाँव से बाहर शौच के लिए
इस प्रकार 'युक्ताहार विहारस्य योगो भवति दुःखहा' के जाते थे, जिससे श्रम, टहलना व घूमना सहज रूप से हो जाता था।
अनुसार आपकी जीवन-चर्या सहज, नियमित एवं बहुत ही सरल
थी। इसी कारण आप प्रायः स्वस्थ ही रहते थे और कभी बीमारी उसके पश्चात् आता था समय स्वाध्याय का।
आती भी थी तो उसे भी ध्यान, आसन, प्राणायाम द्वारा शीघ्र ही स्वाध्याय के पश्चात् एक घंटे का प्रवचन।
दूर कर देते थे। प्रवचन के पश्चात् पुनः एक घंटे तक जप व ध्यान किया
आपश्री के जीवन से सम्बन्धित ये कतिपय संस्मरण स्मृतियों करते थे और फिर आहार।
के आकाश में सितारों की भाँति आज भी झिलमिला जाते हैं और आहार में आपश्री दो बातों का विशेष ध्यान रखते थे-संख्या । मन आलोकित हो उठता है। और मात्रा-दोनों ही कम।
जिसके पास क्षमा है, उसके लिये धनुष बाण, खड्ग, भाले आदि सब व्यर्थ हैं। ये शस्त्र तो शत्रु की देह को ही काबू करते हैं, जबकि क्षमा शत्रु को मित्र बना देती है। यह अमोघ शस्त्र शत्रु के हृदय को जीत लेता है। भूल मनुष्य से होती है पर जो भूल का प्रायश्चित्त लेकर शुद्धिकरण करता है वह महान बन जाता है।। मनुष्य की कैसी विचित्र अभिलाषा है कि वह विष खाकर भी जीवित रहना चाहता है। जीवन में कभी ऐसे भी क्षण आते हैं जब मनुष्य पतित से पावन और दुष्ट से सन्त बन जाता है। आलस्य जीवित व्यक्ति की समाधि है। जो बैठे रहते हैं उनका भाग्य भी बैठ जाता है, जो सोते हैं उनका भाग्य भी सोता है और जो चलते हैं, दौड़ते हैं, उनका भाग्य भी चलता है, दौड़ता है। कोई भी प्राणी तभी तक जीवित रहता है जब तक उसके पुण्य शेष रहते हैं। पुण्य क्षीण होने पर महापराक्रमी को एक साधारण व्यक्ति भी मार सकता है।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
*
ComednaforansarmaterialSD
www.laminetbrity.org
POPacO FOCPrivatePersonaliseonly. 56
90-0000-00045DOORDIDIO