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। तल से शिखर तक
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वह विनय-वन्दन अविस्मरणीय रहना चाहिए। क्योंकि उससे सिद्धगति की प्राप्ति असम्भव है। उनका मानना था आवश्यकता आपश्री की महानता की झलक हमें प्राप्त होती है। आपश्री की चरित्र की है, चातुर्य की नहीं। आवश्यकता सम्यक् आचार की है, विनम्रता को देखकर श्री गणेशीलाल जी महाराज का हृदय आनन्द । समलंकृत वाणी की नहीं, कार्य की है, विवरण और कोरे प्रचार से भर उठा और उन्होंने आपश्री को अपने गले से लगा लिया। की नहीं।
हमें इससे कुछ सीखना चाहिए। दूरियाँ बनाते देर नहीं लगती। खेद का विषय होना ही चाहिए कि आज साधक के जीवन में दूरियाँ मिटाकर एक हो जाने में ही महानता है।
बहुरूपियापन आ गया है। उसका वास्तविक, व्यक्तिगत जीवन
अलग है और सामाजिक जीवन अलग। अजमेर का भी एक प्रसंग है-महास्थविर श्री हगामीलाल जी महाराज से सम्बन्धित। उनका श्रमण संघीय सन्तों से कभी भी
जीवन में दम्भ का प्राधान्य है। दम्भ से सामने वाले का कोई सम्बन्ध नहीं रहा, किन्तु हमारे श्रद्धेय गुरुदेव के व्यक्तित्व में तो
भला होने से तो रहा, स्वयं का विनिपात तो सुनिश्चित हो ही जाता मानो चमत्कार ही था। आपश्री के विनयपूर्ण सुव्यवहार से महास्थविरजी का हृदय-परिवर्तन हो गया और वे सदा-सदा के लिए आपश्री एक निर्दोष बालक की भाँति सरलमना थे। मैं उनका आपश्री के बन गए।
विनम्र शिष्य हूँ। मैंने स्वयं देखा है कि अनेक बार कोई भी बात राजस्थान प्रान्तीय सम्मेलन में सर्व सम्मति से यह निर्णय लिया ।
होने पर आपश्री महास्थविर ताराचन्द्र जी महाराज के पास
निस्संकोच स्पष्ट रूप से कह देते थे। इतनी सरलता थी उनमें। गया कि श्रद्धेय हस्तीमल जी महाराज से पुनः श्रमण-संघ में मिलने हेतु आपश्री वार्तालाप करें। जब आपश्री जोधपुर विराज रहे थे तब और था साहस! वहाँ स्थिति काफी तनावपूर्ण थी। तथापि आपश्री ने प्रवचन बन्द
भगवान् महावीर ने कहा-सरलता साधना का महाप्राण है। रखा और स्वागत हेतु बहुत दूर तक पधारे।
चाहे गृहस्थ साधक हो, चाहे संयमी साधक हो, दोनों के लिए छोटी-सी बात है।
सरलता, निष्कपटता, अदम्भता आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी हैं। किन्तु महापुरुषों की छोटी-छोटी बातों में गहरे अर्थ समाए
घृतसिक्त पावक के समान सहज, सरल साधना ही निधूम होती है,
निर्मल होती हैरहते हैं। व्यापक प्रभाव की शक्ति निहित होती है। आपश्री की विनम्रता से उस समय जोधपुर संघ में सद्व्यवहार
सोही उज्जुयभूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई। का संचार हो गया। श्री हस्तीमल जी म. के साथ आपश्री का
निव्वाणं परमं जाइ, घयसित्तेव्व पावए॥ प्रवचन भी हुआ। आपश्री की ओर से कहीं कोई कसर बाकी नहीं -भगवान् महावीर के इस कथन को आपने अपने जीवन में रही। किन्तु उनकी हार्दिक इच्छा श्रमण-संघ में मिलने की नहीं थी, पूर्ण रूप से चरितार्थ कर लिया था। इसी कारण इतने उच्च पद पर अतः इस सम्बन्ध में प्रगति नहीं हो सकी।
आसीन होकर भी आप सदैव सरल और सौम्य ही बने रहे। किन्तु आपश्री के विनय एवं सद्व्यवहार का प्रभाव श्री और उस सरलता ने आपके जीवन को चार चाँदों से सुशोभित हस्तीमल जी महाराज पर जो पड़ा, सो फिर कभी मिट नहीं सका। । कर दिया। जीवन भर वे ही मधुर सम्बन्ध रहे। मदनगंज और पाली आदि में
दया के देवता मिले स्नेह-सद्भाव के साथ।
दया मनुष्य का श्रेष्ठ मानवीय गुण है। साधना का नवनीत वस्तुतः विनय एक ऐसा ही कवच है, जिसे आज तक कोई । और मन का माधुर्य है। दया की भावना से हृदय से हृदय उर्वर भेद नहीं सका। एक अभेद्य कवच है-विनय।
बनता है और उसमें सद्गणों के कल्पवृक्ष उगते हैं। सन्तों को तो सरलता साकार होती है
दया के देवता ही कहा गया है। वह सन्त ही क्या जो 'स्व' और
'पर' का भेदभाव भुलाकर सभी प्राणियों को दया का अमृत-दान न पूज्य गुरुदेव नख से शिख तक सरल थे। दम्भ का लवलेश भी
करे? महापुरुष वही है जो स्वयं कष्ट सहन करने तथा विपत्तियों उनके जीवन में नहीं था। उनके जीवन और चरित्र का कौन-सा
को भी दृढ़ भाव से सहन करने में समर्थ हो, किन्तु किसी भी अन्य कोण था, जो सरल नहीं था? उनकी वाणी सरल थी। विचार
प्राणी के तनिक से भी दुःख से जिसका कोमल हृदय नवनीत-सा सरल, सीधे, सत्य और सुस्पष्ट थे। प्रत्येक व्यवहार सरल था।
पिघल जाय। आगमों में साधक का एक नाम 'दविए' भी आया हैन कहीं छिपाव-दुराव, न कहीं वक्रता।
दूसरों के दुःख से द्रवित होने वाला। टेढ़े-चलने या वक्र उक्ति को वे साधक के लिए घातक मानते। एक बार आपश्री रायपुर (राज.) से वर्षावास पूर्ण कर थे। आपका दृढ़ और अटल विचार था कि सरल बने बिना बिलाड़ा की ओर पधार रहे थे। मार्ग में एक सरस वन था।
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