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बुद्ध ने बताया
"पाणी
न
हंतच्चो
दातव्वं
अदिन्नं न कामेसु मुच्छा न चरितव्या
भासितव्या
पातव्वं ॥
मूसा न मज्जं न अर्थात् प्राणियों की हिंसा न करो, चोरी मत करो, कामासक्त मत बनो, मृषा मत बोलो और मद्य मत पियो।
बौद्ध धर्म विश्व ने सुदूर अंचलों में फैल गया। इसका स्पष्ट कारण बौद्ध भिक्षुओं का सतत् परिभ्रमण ही है। बौद्ध भिक्षुओं ने घूम-घूमकर अपने आचरण और उपदेशों के द्वारा लंका, जावा, सुमात्रा, बर्मा, चीन, जापान, तिब्बत आदि अनेक देशों में नीति, सभ्यता तथा संस्कृति का प्रचार किया।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन स्वयं एक बड़े भारी घुमक्कड़ थे। खूब घूमे, खूब अनुभव और ज्ञान प्राप्त किया, खूब गहरे उतरे, और कहा - "भगवान् महावीर को धन्य है। वे घुमक्कड़-राज थे।"
स्वयं भगवान् महावीर ने भी एक दिन अपने श्रमणों और श्रमणियों को कहा था- "भारण्डपक्खीव चरेऽप्पमत्ते" - हे श्रमणो! भारण्ड पक्षी की तरह अप्रमत्त होकर विहार करो, भ्रमण करो, विचरण करो।"
उस काल में, बुद्ध और महावीर जैसे महापुरुषों के सतत् विचरण के कारण ही उस समूचे प्रदेश का नाम ही विहार से 'बिहार' हो गया।
एक पाश्चात्य विचारक ने भी कहा है- “He travels best, | who travels on foot” वही सर्वोत्तम यात्रा करता है जो पैदल यात्रा करता है।
गहन
इस संक्षिप्त भूमिका से हमारे पाठक पैदल परिभ्रमण के महत्त्व को अवश्य समझ सकेंगे। मानव-जीवन व्यापक है, विशाल है, है। इसकी गहनता, वास्तविक अनुभूति, सांस्कृतिक अध्ययन तथा | नैतिक परम्पराओं का तलस्पर्शी अध्ययन जितना एक पद यात्री कर सकता है, उतना कोई वाहन-विहारी कदापि नहीं कर सकता।
निस्संदेह यह काँटों का मार्गे है। इस पथ में दुःख हैं, असुविधाएँ हैं।
किन्तु जो व्यक्ति फूल और कंटक, सुविधा और असुविधा, और दुःख को समान मानकर नहीं चला, वह चला ही क्या ?
सुख
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चलते-चलते एक ग्राम से दूसरे ग्राम, एक नगर से दूसरे नगर, एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक जाते-आते कहीं अमृत मिलता है, और हाँ, कहीं विष भी कहीं स्नेह, सद्भावना, सत्कार मिलता है तो कहीं दुत्कार और अपमान ।
Education intemation
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
श्रद्धेच गुरुवर्य ने अपने भव्य जीवन में निरन्तर आगे से आगे ही चलते और बढ़ते हुए समस्त विष को अमृत बना दिया।
हमारे लिए यह विस्मय का विषय हो सकता है, किन्तु उनके लिए तो यह सहज-सामान्य था।
क्योंकि उनका तो समूचा व्यक्तित्व, सम्पूर्ण अस्तित्व ही अमृतमय था।
संभव नहीं है कि श्रद्धेय गुरुदेव के समस्त जीवन के अविराम विहार तथा वर्षावासों का पूरा विवरण प्रस्तुत किया जा सके।
आकाश को कौन बाँध पाया है ?
शब्द उनके भव्य जीवन का लेखा कहाँ तक अंकित कर पायेंगे ?
अतः हम उनके विहार तथा वर्षावासों की एक सूक्ष्म, संक्षिप्त झलक मात्र अपने पाठकों को दिखा पाएंगे, और आशा रखेंगे कि वह एक दिव्य झलक मात्र ही हमारे सुधी पाठकों के मानस-लोक को आलोकित कर सकेगी।
युग बदल चुका है। विज्ञान ने बहुत प्रगति की है। यातायात के अनेक प्रकार के साधन उपलब्ध हैं। वे सुविधाजनक भी हैं और तीव्रगामी भी समुद्र और आकाश में भी आवागमन सरल-सुगम हो गया है। अन्य ग्रहों तक मानव की पहुँच हो गई है। किन्तु जैन श्रमण प्राचीन हितकारी परम्परा के अनुसार पादचार से ही ग्रामानुग्राम विचरण करता है। ऐसी पैदल विहार चर्या में अनेक व्यक्तियों से, अनेक प्रकार की संस्कृतियों से परिचय होता है। जीवन के विकास के लिए इस प्रकार के विभिन्न अनुभव बहुत सहायक होते हैं और सबसे बड़ी बात तो यह कि जैन श्रमणों के सदुपदेशों से जन-जन का कल्याण होता है।
श्रद्धेय गुरुवर्य ने अपने जीवनकाल में बहुत बड़ी-बड़ी यात्राएँ की थीं। उन्होंने मेवाड़, पंचमहल, मारवाड़, ढूँढार, भरतपुर, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, खानदेश, सौराष्ट्र, गुजरात, महाराष्ट्र. कर्नाटक, तमिलनाडु, आन्ध्रप्रदेश आदि प्रान्तों की अनेक बार यात्राएँ कीं। आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि इतनी लम्बी-लम्बी यात्राओं में उनसे कितने छोटे-बड़े व्यक्ति सम्पर्क में आए होंगे और उन सभी को आपके जीवन से कितनी प्रेरणा प्राप्त हुई होगी।
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राजस्थान से बम्बई- पूना तक आपश्री ने पाँच बार यात्रा की। प्रत्येक बार की यात्रा दूसरी बार की यात्रा से अधिक प्रभावशाली रही। प्रथम यात्रा में आपश्री बम्बई में दो महीने तथा दूसरी यात्रा में वहाँ के विविध अंचलों में बारह महीने तक रुके। तृतीय यात्रा के प्रथम चरण में छह महीने तथा द्वितीय चरण में दो वर्ष तक रुके।। इस समय मेरे द्वारा सम्पादित किया हुआ कल्पसूत्र का गुजराती। अनुवाद कान्दावाड़ी जैन संघ के द्वारा प्रकाशित हुआ और उसकी
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