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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
टिम-टिम करते तारे !
(संस्मरण)
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महापुरुषों के एक-एक शब्द, एक-एक संकेत, प्रत्येक कथन, छोटी से छोटी क्रिया में भी महान् जीवन के गम्भीर दिशा-निर्देश अन्तर्निहित रहते हैं।
आज हमारे पास पूज्य गुरुदेव के भव्य जीवन की अनन्त कल्याणी स्मृतियाँ ही शेष हैं
मानो अन्तर्मानस के नीलाकाश में स्मृतियों के सितारे झिलमिला
रहे हों ! DOORDAR
कोई बहुत ही सूक्ष्म झिप-झिप-सी करती मनोहर तारिका है, उज्ज्वल-उज्ज्वल!
तो कभी कोई स्मृति का धवल धूमकेतु-सा दीप्तिमान तारक भी किसी अंगार-सा जलता हुआ दृष्टिगोचर होता है।
कड़वी भी होती हैं स्मृतियाँ। मीठी भी होती हैं यादें।
गुरुदेव श्री के जीवन में अनेक प्रकार के प्रसंगाते रहे, जाते रहे। प्रिय भी, और सामान्य जन को अप्रिय लगें-ऐसे भी।
किन्तु गुरुदेव श्री की आत्मा कितनी उच्च स्थिति पर आसीन रहकर उन समस्त कटु-मधुर प्रसंगों को आनन्द एवं समभाव के साथ देखती थी, यही बताना हमारा उद्देश्य है।
कुछ छोटे-मोटे अवसर देखिए600
दाने-दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम 1000 यह प्रसंग सन् १९२६ का है। आपश्री का वर्षावास उस वर्ष
सादड़ी (मारवाड़) में था। उस समय आपके गुरुदेव श्री ताराचन्द्र
जी महाराज तथा दौलतराम जी महाराज भी वहीं थे। एक दिन ap भिक्षा में एक मोदक आया। अब एक मोदक को कौन खाए?
गुरुदेव महास्थविर ताराचन्द्र जी महाराज ने कहा
"पुष्कर! तू सबसे छोटा है। यह लड्डू तू ही खा ले। तू ही DAD इसका अधिकारी है।"
किन्तु गुरुदेव ने कहा-"गुरुदेव आप बड़े हैं। अतः यह सरस आहार आपश्री को ही ग्रहण करना चाहिए अथवा फिर इन वृद्ध महाराज को।"
इस प्रकार एक-दूसरे को ही खाने का कहे जाने पर निर्णय रहा कि पहले शेष आहार ले लिया जाय, बाद में, अन्त में इसका वितरण ही कर लेंगे। इस निर्णय के अनुसार लडु को बीच में रखे पाट पर रख दिया गया।
किन्तु दाने-दाने पर तो खाने वाले का नाम पहले से ही लिखा रहता है।
समीप ही एक पीपल का पेड़ था। उस पर एक वानर बैठा था। उसकी चपल दृष्टि उस मोदक पर पड़ी। धीरे-धीरे चतुराई
और चपलता से वह नीचे उतरा और उस मोदक पर झपट्टा मारकर चलता बना।
वितरण की झंझट भी समाप्त हो गई। गुरुदेव ने प्रसन्न मुद्रा में अपने गुरुदेव से कहा-"इसी को कहते हैं-दाने-दाने पर लिखा है, खाने वाले का नाम। हम लोग व्यर्थ ही पशोपेश में पड़े थे।" उत्कट सेवाभावना
सन् १९३४ में आपका वर्षावास ब्यावर में था। वर्षाकाल के चातुर्मास में जैन श्रमण विहार नहीं किया करते। वे एक ही स्थान पर स्थिर रहते हैं किन्तु स्थानांग सूत्र के पंचम ठाणे में उल्लेख है कि विशिष्ट परिस्थितियों में विहार किया जा सकता है। वे कारण हैं-ज्ञान के लिए, दर्शन के लिए, चारित्र के लिए, आचार्य अथवा उपाध्याय के स्वर्गारोहण के अवसर पर, वर्षा क्षेत्र से बाहर रहे हुए आचार्य या उपाध्याय की वैयावृत्य करने के लिए।
इस विधान के अनुसार गुरुदेवश्री के ब्यावर वर्षावास के समय एक अवसर उपस्थित हो गया। आचार्य श्री अमरसिंह जी महाराज की सम्प्रदाय के वयोवृद्ध प्रवर्तक श्री दयालचन्द जी महाराज, जिनका वर्षावास उस समय समदड़ी में था, अचानक अत्यधिक अस्वस्थ हो गए। अतः इस विशेष परिस्थिति में उत्कट सेवाभावना से प्रेरित होकर आपश्री विहार करके समदड़ी पधारे। सत्याग्रह या हठाग्रह?
सत्य के लिए आग्रह तो ठीक है, किन्तु हठाग्रह करना उचित नहीं। आपश्री का वर्षावास सन् १९३६ में नासिक में था। उस समय आपश्री बम्बई होकर नासिक पधारे थे। तब सत्याग्रही मुनिश्री मिश्रीमल जी महाराज ने आचार्य हुक्मीचन्द जी महाराज, पूज्य श्री जवाहरलाल जी महाराज और पूज्य मुन्नालाल जी महाराज की एकता करने हेतु फुटपाथ पर बैठकर सत्याग्रह कर रखा था। सत्याग्रह के साठ दिन पूरे हो चुके थे। बम्बई संघ के आग्रह पर आपश्री ने उन्हें समझाने का प्रयास किया कि जैन श्रमणों को इस प्रकार फुटपाथ पर बैठकर अनशन करना उचित नहीं है। इसे सत्याग्रह नहीं, हठाग्रह की संज्ञा दी जायेगी। ऐसा करने से जिनशासन की प्रभावना के स्थान पर हीलना होती है।
उन्हें गुरुदेवश्री के अकाट्य तर्क तो समझ में आ गए। उनका कोई उत्तर उनके पास नहीं था। किन्तु फिर भी वे अपना हठ
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