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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
सदगुणों के शान्त शतदल
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श्रद्धेय गुरुवर्य के महत् जीवन के उत्कृष्ट क्रियाकलापों की एक । ____ क्या आपत्ति हो सकती थी? आपत्ति का कोई भी कारण हमें Parge सूक्ष्म रूपरेखा ही पिछले अध्याय में प्रस्तुत की जा सकी है। सच्चाई। इसमें दिखाई नहीं देता। तो यह है कि समाज और राष्ट्र तथा सम्पूर्ण मानवता को उनकी
दो दीपक यदि एक ही प्रकोष्ठ को अधिक उज्ज्वल करें, जो अमर और चिरस्थायी देन है, उसका सम्पूर्ण आकलन तो प्रायः ।
अधिक प्रकाश फैले इस अन्धकारमय जगत में, तो हानि क्या है ? | संभव ही नहीं है।
आपश्री उसी धर्मशाला में विराजें। ज्ञानचर्चा हुई। आनन्द का फिर भी आगे के अध्यायों में प्रसंगानुसार हम उन
वातावरण बना। दूरियाँ कम हुईं। परस्पर सद्भाव एवं समझ का क्रियाकलापों का यथासंभव आलेखन करने का प्रयत्न करेंगे जिनसे
विस्तार हुआ। ज्ञानी आचार्यश्री शान्तिसागर जी "पुष्कर मुनि" 200 उनके परम पुरुषार्थ की झलक हमारे पाठकों को मिल सके।
नामक सच्चे महासन्त के चरित्र और विचारों से बहुत प्रभावित यहाँ हम उनके आभ्यंतर व्यक्तित्व की परमोज्ज्वल छवि को अपनी लेखनी द्वारा यथाशक्य अंकित करने का यत्न करते हैं।
बम्बई में आगम प्रभावक श्री पुण्यविजय जी महाराज विराज एक सच्चे सन्त का जीवन तो समस्त सद्गुणों का पुंज ही होता रहे थे। वे वयस्थविर, ज्ञानस्थविर और दीक्षा-स्थविर भी थे। है। उन अनेक सद्गुणों में से एक जो प्रमुख गुण है, वह है-विनय।। आपश्री उनसे मिलने बालकेश्वर के जैन मन्दिर में पधारे। लम्बे गुरुदेव विनय की मूर्ति थे। विनम्रता उनके जीवन में रची-बसी
समय तक आगमिक एवं दार्शनिक विषयों पर विचार-चर्चा हुई। हुई थी। आप श्रमणसंघ के उपाध्याय थे। ज्ञान के महासागर थे।
आपश्री के विनय एवं जिज्ञासावृत्ति को निहारकर-पुण्यविजय जी अनेक उपाधियों से अलंकृत थे। अपने भूतपूर्व सम्प्रदाय के वे महाराज गद्गद हो गए तथा दोनों महान् सन्तों का स्नेहपूर्ण सम्बन्ध मूर्धन्य वरिष्ठ सन्त थे। साधना के शिखर तक पहुँचे हुए थे। किन्तु । फिर अटूट ही रहा, आजीवन बना रहा। इतना सब होते हुए भी अहंकार उनके समीप कभी फटक भी नहीं ।
पं. मुनि श्री यशोविजय जी विद्वान हैं। तपस्वी हैं। दुर्घटनाग्रस्त
मनि श्री यशोविजय जी विद्वान हैं। सका। अहंकार उनकी कल्पना तक में भी कभी नहीं आ सका। होकर वे बम्बई के नानावाटी अस्पताल में थे। एक ज्ञानी, तपस्वी 800 उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व से विनम्रता की मधुर और मोहक सुवास ही ।
सन्त अस्वस्थ हो और समीप ही हो, तो क्या हमारे परम उदार, 18 उड़ा करती थी।
विनयमूर्ति, सरलमना उपाध्याय श्री उनकी सुख-साता पूछने भी न इतने उच्च पद पर आसीन रहने के उपरान्त भी वे गुरुजनों जाते? यदि न जाते तो फिर उनकी महानता का दर्शन हमें कैसे A का आदर उसी विनयभाव से करते थे जैसे कि एक लघु संत होता? HERE करता है। सम्प्रदाय की रेखा उनके प्रशस्त उदार पथ को कहीं से वे मुनि श्री यशोविजय जी के पास गए। सुख-साता पूछी।
नहीं चीरती थी। प्रत्येक सम्प्रदाय के व्यक्तियों से वे निश्छल हृदय से मिलते और चर्चा करते थे। अन्य सम्प्रदायों के धर्मस्थलों में जाने में
प्रमाणित हुआ, कि एक सच्चे सन्त की दृष्टि कभी संकुचित उन्हें कभी संकोच नहीं होता था। वे मानते थे कि दूर-दूर रहकर
नहीं होती। ETE दूरियों को मिटाया नहीं जा सकता। दूरियाँ तथा मतभेद तो । पूज्य गुरुदेव की विनय भावना तथा उदार मनोवृत्ति के इस
8 स्नेह-सौजन्ययुक्त सामीप्य से ही मिट सकती हैं। स्थानकवासी प्रकार के दृष्टान्त अनेक हैं। हमारे पास स्थानाभाव है। अतः एक-दो
- परम्परा में होने से आपश्री को मूर्तिपूजा में तो विश्वास नहीं था, प्रसंग ही बताकर हम विश्वास करते हैं-कि पाठक यह भली-भाँति Doos
किन्तु आबू के देलवाड़ा मन्दिर में, राणकपुर जी, केसरियाजी आदि जान सकेंगे कि विनयशीलता किसे कहते हैं ? अनेक श्वेताम्बर मन्दिरों में तथा श्रवण बेलगोला, गजपन्था आदि
। अंग्रेजी में एक कहावत है-Talents differ-इसका अर्थ अनेक दिगम्बर जैन मन्दिरों में भी आप पधारे और वहाँ की
है-प्रतिभाशाली व्यक्तियों के चिन्तन में भेद हो सकता है। परम उत्कृष्ट कलाकृतियों का अवलोकन किया।
श्रद्धेय उपाचार्य श्री गणेशीलाल जी महाराज के साथ श्रमण-संघ के एक बार आपश्री नासिक से सूरत पधार रहे थे। गजपन्था वैधानिक प्रश्नों को लेकर आपश्री का उनसे अत्यधिक मतभेद हो तीर्थ में उस समय चारित्र-चक्र चूड़ामणि दिगम्बराचार्य श्री गया था। अन्त में उपाचार्य श्री को श्रमण संघ के उपाचार्य पद से - शान्तिसागर जी विराज रहे थे। एक गुणवान व्यक्ति दूसरे गुणवान । त्यागपत्र देना पड़ा था। किन्तु जब आपश्री उदयपुर पधारे, तब
व्यक्ति की ओर आकृष्ट हो, यह स्वाभाविक और उचित भी है। श्रद्धेय गणेशीलाल जी महाराज अस्वस्थ थे। उनका ऑपरेशन हुआ दिगम्बर श्रावकों का भी आग्रह था कि आपश्री एक ही धर्मशाला में था। आपश्री अपनी शिष्य मण्डली सहित वहाँ पधारे और सविधि उन्हीं के साथ विराजें।
वन्दन किया।
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