________________
श्रद्धा का लहराता समन्दर
आन्ध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, हरियाणा व दिल्ली आदि प्रान्तों में पैदल परिभ्रमण कर हजारों लोगों को मद्य, माँस आदि मादक पदार्थों के सेवन का त्याग कराकर सात्विक जीवन जीने की सदा प्रेरणा प्रदान करते रहे। जनमानस में फैली हुई अंध श्रद्धा को दूर करने के लिए आपने प्रबल प्रयास किया।
आपने स्वयं आगम, दर्शन, साहित्य और संस्कृति का तलस्पर्शी अनुशीलन किया और अपने शिष्य शिष्याओं को भी उस पथ पर बढ़ने के लिए उत्प्रेरित किया। यही कारण है कि आपके सुशिष्य आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी ने साहित्य के क्षेत्र में एक कीर्तिमान स्थापित किया। दूसरे शिष्य श्री गणेशमुनि जी ने भी साहित्य की अनेक विधाओं में लिखा आपके शिष्य रमेश मुनि जी ने साहित्य की अनेक विधाओं में निबंध लिखे, आपके पौत्र शिष्य डॉ. राजेन्द्र मुनि जी ने आचार्यश्री देवेन्द्र मुनि जी के साहित्य पर शोध प्रबंध लिखकर आगरा विश्वविद्यालय से पी-एच. डी की उपाधि प्राप्त की। तथा आपकी सुशिष्या महासती कुसुमवती जी, महासती पुष्पवती जी महासती चारित्रप्रभा जी महासती दिव्यप्रभाजी, दर्शनप्रभा जी, चन्दनवाला जी, कौशल्या जी आदि अनेकों संत-सतियों ने उच्चतम शिक्षाएँ प्राप्त की हैं और साहित्यरत्न, जैन सिद्धांताचार्य, न्यायतीर्थ, काव्यतीर्थ, एम. ए. और पी-एच. डी. की उपाधियों से समलंकृत हुईं हैं। अनेकों साध्वियाँ प्रवचन कला में निष्णात हैं, आपश्री शताधिक व्यक्तियों के जीवन-निर्माता रहे हैं।
आपश्री का संपूर्ण जीवन पूर्ण यशस्वी रहा। निर्धूम ज्योति की तरह सदा आप प्रज्ज्वलित रहे और जीवन की सांध्य बेला में ४२ घण्टे का चौवीहार संथारा कर आपका संसार से महाप्रयाण हुआ। आपका पुण्य प्रबल था जिसके फलस्वरूप अंतिम समय में आपकी सेवा में २00 से अधिक साधु-साध्वी समुपस्थित थे तथा लाखों व्यक्तियों ने अंतिम समय में आपके दर्शन कर अपने जीवन को धन्य किया। आपका पूर्ण यशस्वी जीवन सभी के लिए प्रेरणा स्रोत रहा है, आप हमारे जीवन के निर्माता थे, हमारी अश्रुपूरित अनन्त आस्था आपश्री के श्रीचरणों में समर्पित है, आप जहाँ भी हों हमें मंगलमय आशीर्वाद प्रदान करें, जिससे हमारी संयम-साधना निर्विघ्न रूप से उत्तरोत्तर बढ़ती रहे।
इन्द्रधनुषी व्यक्तित्व के धनी : सद्गुरुदेव
-साध्वी किरणप्रभा जी (महासती पुष्पवती जी की सुशिष्या)
जय अनंत आकाश में इन्द्रधनुष की मनमोहक छटा छितराती है तो दर्शक का मन-मयूर नाच उठता है। उस चित्ताकर्षक दृश्य को देखते-देखते नेत्र अघाते नहीं, मन भरता नहीं और हृदय आनन्द से झूमने लगता है। पुनः पुनः उस दृश्य को देखने के लिए आँखें
५७
ललकती हैं। कभी इन्द्रधनुष के चार रंग दिखलाई देते हैं तो कभी पाँच और कभी सात । नेत्र यह निश्चय नहीं कर पाते किसमें कितने रंग हैं। उन रंग-बिरंगों को वह देखते ही रह जाते हैं।
परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर पुनि जी म. का व्यक्तित्व भी इन्द्रधनुष की तरह ही चित्ताकर्षक था जब-जब उनकी दिव्य और भव्य देह के दर्शन किए तब ऐसा अनुभव होता था कि आपका विकल्प विविध रंगों से रंगा हुआ है, केवल अनुभूति होती थी कि आप सरलता की साकार प्रतिमा हैं। विनम्रता के पावन प्रतीक हैं, आपके अन्तर्मानस में ज्ञान का अगाध सागर ठाठें मार रहा है। नाना प्रकार की ज्ञान की तरंगें तरंगायित हैं। विविध भाषाओं पर अधिकार, धर्म, दर्शन और आगम आदि के गम्भीर रहस्यों का सूक्ष्म विवेचन श्रवण कर लगता कि आप कितने महान् हैं।
आपकी वाणी में ओज था, तेज था, और साथ ही माधुर्य छलकता था। जब भी बोलते थे, गंभीर चिन्तन के बाद ही शब्द निकलते थे। निरर्थक बोलना आपको पसन्द नहीं था। आगम की भाषा में आप हितकारी, हिताक्षर और सुन्दर बोलते थे, आपकी वाणी को वकील भी कील नहीं सकते थे। आप सच्चे वाग्मी थे, वागीश्वर थे। शब्दों में सार, भाषा में सार और माधुर्य इस प्रकार छलकता था मानों अंगूरों का गुच्छा ही हो।
वे अनुशासनप्रिय थे, वर्षों तक वे गुरु के अनुशासन में रहे, संघशास्ता आचार्य के अनुशासन में रहे, वह अनुशासन वाणी विलास का नहीं अपितु जीवन के व्यवहार का था। यही कारण है कि अस्सी वर्ष की उम्र में स्व. आचार्य सम्राट् श्री आनन्द ऋषि जी म. के आदेश को शिरोधार्य कर बाड़मेर जिले से विहार कर पूना सम्मेलन में पधारे।
तीन महीने के स्वल्प काल में लगभग १५०० कि. मी. की लम्बी यात्रा की यह है अनुशासनप्रियता का ज्वलन्त उदाहरण सेनापति के आदेश को शिरोधार्य कर जिस प्रकार सैनिक रणक्षेत्र में जूझता है, वैसे ही साधक आचार्य के आदेश को शिरोधार्य कर ननुनच किए बिना ही कार्य करता है। वही सच्चा अनुशासन प्रेमी है जो दूसरों के अनुशासन में रह सकता है, वही सच्चा अनुशास्ता
बन सकता है।
विद्या के साथ विनय, विनय के साथ विवेक और विवेक के साथ वाग्मिता और व्यवहारपटुता ऐसे सद्गुण हैं, जिनसे जीवन निखरता है, श्रद्धेय गुरुदेवश्री के जीवन में विविध गुणों का मणिकांचन संयोग हुआ था उनमें विलक्षण प्रतिभा थी। वाल्यकाल से ही वे अध्ययनशील थे, उन्होंने व्याकरण, न्याय, साहित्य आदि का गहराई से अनुशीलन किया जो भी महामनीषी उन्हें मिलते उनके सामने जिज्ञासाएँ प्रस्तुत करने में कतराते नहीं थे। उनमें सहज स्फुरणा थी, सहज जिज्ञासा थी और उसी जिज्ञासा के कारण उन्होंने अपना विकास किया था और वे अनेक ग्रन्थों के पारायण
Private
www.gainglibracy orgo