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1 श्रद्धा का लहराता समन्दर
। सरस्वती पुत्र : गुरुदेवश्री
वैराग्य के शाश्वत सरोवर थे। श्रमण संस्कृति के एक मनोनीत और
विश्रुत विद्वान श्रमण थे। आपका मंगलमय जीवन अहिंसा और -महासती सुलक्षणप्रभा जी
सत्य का पावन प्रतिष्ठान था, जप और तप, दया और करुणा का (महासती कौशल्या कुंवर जी की सुशिष्या)
आदर्श भण्डार था, उदारता और सहिष्णुता का प्रकाश स्तम्भ था,
जो संयम पथ के पथिक साधकों को सदा सन्मार्ग का दर्शन कराता स्वभाव में सरलता, व्यवहार में विनम्रता, वाणी में मधुरता, रहा, संयम भूमि पर गति करने वाले श्रमणों को अपने गंतव्य स्थल मुख पर सौम्यता, नयनों में तेजस्विता, हृदय में पवित्रता, स्वभाव में { तक पहुँचने में जो अनेक बाधाएँ उपस्थित होती हैं, उन बाधाओं से सहजता का नाम था, परम श्रद्धेय उपाध्याय पू. गुरुदेव श्री पुष्कर । सतर्क रहकर सावधानीपूर्वक अप्रमत्त भाव से आगे बढ़ने की प्रेरणा मुनि जी म.। सद्गुरुवर्य के जीवन को कहीं से भी झांककर देखो प्रदान करते थे, वे अपने युग के युग पुरुष थे, ज्योति पुंज थे, कोहिनूर की तरह सर्वत्र प्रकाश ही प्रकाश था। गंगा के निर्मल नीर । सच्चे पथ प्रदर्शक थे। को किसी भी छोर से पीओ मधुरता से ओतप्रोत होगा। मिश्री को
जो भी साधक उनके चरणों में पहुँचता वे उन्हें यह पावन किसी भी कोने से चखो, वह मीठी होगी। गुलाब के फूल को कहीं
प्रेरणा प्रदान करते, जीवन का कोई भरोसा नहीं है, प्रभात के तारे से भी सूंघो, उसमें खुशबू ही होगी। वैसे ही सद्गुरु का जीवन था,
की तरह जीवन क्षण भंगुर है, मानव कितना पागल है, जो कमनीय उनके सद्गुणों को शब्दों की लड़ी की लड़ी में बाँधना बहुत ही
कल्पनाओं के नित नये महल खड़े करता है और सारी शक्ति और कठिन है तथापि अल्प बुद्धि से असीम भावों को ससीम शब्दों में
सामर्थ्य उसके पीछे लगाता है पर अपने आपको भूल जाता है, जो व्यक्त करने का एक प्रयास किया जा रहा है।
शाश्वत सत्य है, उसको विस्मृत होकर अशाश्वत के पीछे अपनी आपश्री का स्वभाव बालक की तरह सरल था। कपट, माया, शक्ति का अपव्यय कर रहा है। यदि शाश्वत सत्य को हृदयंगम कर छल और छद्म का आपके जीवन में नामोनिशान भी नहीं था, जैसा लें तो उसका भव-भ्रमण सदा-सदा के लिए मिट जाए। सद्गुरुदेव आपका जीवन अन्दर था, वैसा ही आपका बाह्य जीवन था। अन्दर की पावन प्रेरणा से अनेक आत्माओं ने शाश्वत सत्य को अपनाने और बाह्य जीवन की एकरूपता थी। बहुरूपिया जीवन आपको के लिए संयम-साधना के पथ पर अपने मुस्तैदी कदम बढ़ाए, उनमें | तनिक मात्र भी पसन्द नहीं था।
से एक मैं भी हूँ, गुरुदेवश्री की विमल वाणी ने मेरे में वैराग्य कहा जाता है कि देवताओं की संपत्ति अमृत है, वैसे ही मानव
| भावना उद्बुद्ध की और मैं साधना के पथ पर बढ़ी, गुरु की की संपत्ति मधुर वाणी है। यह सत्य है कि प्रथम दर्शन में मानव का
असीम कृपा से ही मुझे यह संयम रत्न प्राप्त हुआ, उनकी असीम शारीरिक सौन्दर्य व्यक्ति को चुम्बक की तरह खींचता है, पर
कृपा जीवन भर मेरे पर रही है और जब भी गुरुदेव की पावन उसकी वाणी में यदि माधुर्य नहीं है तो वह सौंदर्य चिरकाल तक
स्मृति आती है तो मेरा हृदय श्रद्धा से नत हो जाता है, गुरु चरणों व्यक्ति को आकर्षित नहीं कर सकता। दुर्योधन का रूप सुन्दर था,
में यही प्रार्थना है कि मैं सदा सर्वदा कषाय का शमन करूँ और कृष्ण का रूप उतना सुन्दर नहीं था पर उनकी वाणी में गजब का
आज्ञा का आराधन करते हुए अपने जीवन को पवित्र बनाती रहूँ। माधुर्य था, जिसके कारण कृष्ण जन-जन के आराध्य देव बन गये। मयूर के रंग-बिरंगे पंखों को निहारकर चित्रकार की तूलिका भी फीकी पड़ जाती है, शारीरिक सौन्दर्य होने पर भी वाणी का जो
निष्कलंक-जीवन माधुर्य कोयल में है, वैसा माधुर्य मयूर में न होने के कारण वह
-साध्वी कल्पना जी कवि के काव्य का केन्द्र नहीं बन सका। श्रद्धेय सद्गुरुवर्य की वाणी
(स्व. महासती श्री मदन कुंवर जी की सुशिष्या) में माधुर्य का सागर ठाठे मारता था, वे जब बोलते थे तो लगता था, सरस्वती पुत्र ही बोल रहा है, चुम्बक की तरह श्रोताओं को वे
एक शायर ने लिखा है, आकर्षित करते थे, उनके प्रवचनों में और वार्तालाप में हँसी के
"जिन्दगी ऐसी बना, जिन्दा रहे दिलशाद तू। सहज फव्वारे छूट पड़ते थे। आज सद्गुरुदेव की भौतिक देह हमारे
जब न हो दुनियाँ में, तो दुनिया को याद आए तू॥" बीच नहीं है किन्तु उनके गुणों का स्मरण कर सहज ही हृदय श्रद्धा परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. का 400 से नत हो जाता है।
जीवन बहुत ही निराला जीवन था। उनका जीवन सरिता की सरस
धारा के समान निरन्तर प्रवाहित रहा। जैसे अनंत आकाश को [ विनय और विवेक के शाश्वत सरोवर ) नापना कठिन है, सागर की गहराई को नापना मुश्किल है, उसी
तरह गुरुदेवश्री के जीवन को नापना भी कठिन है, उनका जीवन -महासती श्री सुप्रभा जी म.
बहुत ही अद्भुत था, विरले साधक ही इस प्रकार निर्दोष, परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. विवेक और निष्कलंक जीवन जीते हैं। एलबमा, यजयकायम
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