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Posted तल से शिखर तक
२१५ । हिमालय के गर्भ से जब अलकनंदा के पुण्य स्रोत का उद्भव स्वर्ग से भी महान्-स्वर्गादपि गरीयसी-अपनी प्यारी, कल्याणी हो जाता है, तब आगे जाकर क्या महागंगा के महाप्रवाह को कोई जननी जन्मभूमि के गौरव और स्वतंत्रता की रक्षा से बढ़कर अन्य रोक सका है?
कोई कर्त्तव्य होता भी क्या है? नहीं।
इसी कर्त्तव्यभूमि, त्यागभूमि मेवाड़ के प्रसिद्ध स्थल गोगुन्दा के DG वह विपुल महाप्रवाह एक दिन सागर बन जाता है और फिर
समीप ही स्थित है एक छोटा-सा ग्राम गुरुपुष्कर नगर (सिमटार), अपनी करुणा और प्रेम के दयार्द्र मेघों से भूतल पर अमृतवर्षण
जिसे पूज्य गुरुदेव को जन्म देने का असीम, अखण्ड गौरव प्राप्त करता है।
हुआ। आइये, निर्झर से महानद और महानद से महासागर बनकर
तो लीजिए, अब हम चलते हैं छोटे-से ग्राम सिमटार की सीमा जन-जन को जीवन और संजीवन प्रदान करने वाली इस अथक,
से पूज्य गुरुदेव की असीम और अनन्त महानुभावता के आलोक
जगत में। अविराम अनन्त यात्रा के साक्षी हमारे साथ आप भी बनिए
विक्रम संवत् १९६७ की आश्विन शुक्ला चतुर्दशी का धन्य दिवस!
पुंजीभूत प्रकाश तथा अनन्त प्रेम के असीम आगार पूज्य
गुरुदेव का जन्म सिमटार ग्राम में संवत् १९६७ में हुआ था। एक बहुत छोटा-सा ग्राम-नाम गुरुपुष्कर नगर (सिमटार)। यह छोटा-सा ग्राम इस युग के एक महापुरुष की जन्मस्थली बनकर
किन्तु जन्म से नौ माह पूर्व की एक रात्रि के उस अन्तिम इतिहास में अमर हो गया।
प्रहर, प्रातःकाल के आगमन की उस पुण्यवेला को भी भुलाया नहीं
जा सकता जब एक धन्यकुक्षि भावी माता ने एक विरल महास्वप्न कहाँ है यह ग्राम? नाम भी कभी सुना नहीं। ऐसे किस
देखा। महापुरुष की जन्मस्थली बनने का परम सौभाग्य इस अजाने-से ग्राम
वे स्वप्नदर्शिणी पुण्यवान महिला थीं-वालीबाई। उनके पतिदेव को प्राप्त हो गया? इसके विषय में तो जानना ही चाहिए।
का नाम था श्री सूरजमल जी। ये दम्पत्ति अपने मधुर स्वभाव एवं जी हाँ! हम आपको वही तो बताने जा रहे हैं। उस ग्राम और । व्यवहार के कारण ग्राम में एक आदर्श ही थे। दोनों की वाणी उस पुण्य-पुरुष के विषय में जानकर आप अनुभव करेंगे कि आप प्रिय थी। व्यवहार मधुर था। जीवन सरल और सीधा था। वक्रता न के जीवन में कुछ सार्थकता का समावेश हुआ। आज कुछ प्राप्त । मन में थी, न आचरण में।
ब्राह्मण कुलोत्पन्न श्री सूरजमल जी के पूर्वज मारवाड़ प्रदेश के विश्व के देशों में श्रेष्ठ भारत के पश्चिमांचल में स्थित पाली नगर से मेवाड़ में आए थे। प्राचीन शिलालेखों में पाली का राजस्थान प्रदेश है। प्रतिदिन अस्ताचल की ओर जाता हुआ सूर्य | नाम ‘पल्लिका' अथवा 'पल्ली' मिलता है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह इस पवित्र भूमि को नमन करता है और पुनः नई दीप्ति के साथ स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण रहा है। उदित होने का वरदान माँगता है। भारतवर्ष के इतिहास में
एक अनुश्रुति जानने योग्य है, क्योंकि उसमें से बंधुत्व, राजस्थान का जो महत्त्वपूर्ण स्थान है वह तो सुपरिचित ही है। यह उदारता, सहयोग, सहानुभूति आदि सद्गुणों की सुवास आती है। भूमि वीरों, महाकवियों, भक्तों, सन्तों, दानियों और परम पुरुषार्थी । कहा जाता है कि किसी समय पाली में एक लाख ब्राह्मणों के घर जन-सामान्य की भूमि है।
थे और वे सभी लक्षाधिपति थे। जब भी कभी कोई निर्धन ब्राह्मण इसी यशस्वी राजस्थान प्रदेश के पश्चिमी छोर को स्पर्श कर
बाहर से आता और वहाँ निवास करना चाहता तो प्रत्येक घर से पूर्व और उत्तर की ओर फैलता हुआ भूखण्ड है-मेवाड़।
एक-एक ईंट और एक-एक रुपया उसे प्रदान किया जाता था। रोमांच-सा हो जाता है मेवाड़ का नाम सुनते ही।
ईंटों से घर बन जाता।
और निर्धन ब्राह्मण एक लाख घरों से एक-एक रुपया प्राप्त अतीत के सैंकड़ों सुनहरे पृष्ठ स्मृति के पवन-झकोरों में
कर स्वयं भी लक्षाधिपति हो जाता। फड़फड़ाने लगते हैं। राणा कुम्भा और प्रताप जैसे प्रतापी नर-पुंगवों की याद हृदय को गौरव से अभिभूत करने लगती है। नाम गिनाए
पारस्परिक सहयोग तथा समानता की भावना का यह कितना न जा सकें, इतने वीर पुरुषों, वीरांगनाओं तथा वीर बालकों ने ।
श्रेष्ठ उदाहरण है? अपनी जन्मभूमि मेवाड़ के लिए हँसते-हँसते अपने प्राण, अपना यह आदर्श भावना आज इस भूतल पर से कहाँ उड़ गई, कौन सर्वस्व न्यौछावर कर दिया।
जाने?
हुआ हमें।
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