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उस आदर्श नगरी पाली में रहने वाले ब्राह्मण किसी के द्वारा पूछे जाने पर स्वयं को पालीवाल कहते और गौरव का अनुभव करते थे।
और अपने सद्गुणों के कारण उन्हें अपने हृदय में इस गौरव का अनुभव करने का अधिकार भी था। उन्होंने अपनी नगरी को, अपनी भूमि को, बंधुत्व की पवित्र भावना से सिंचित किया था। ऐसी भूमि का गौरव यदि उन्हें था तो साधिकार था, सर्वथा उचित ही था।
ऐसी सम्पन्न एवं संस्कारवान नगरी पर स्वार्थी यवनों की कुदृष्टि पड़ गई। संवत् १३९३ में उन्होंने पाली पर आक्रमण कर दिया। पालीवालों ने अपनी नगरी की रक्षा हेतु जमकर लोहा लिया। वे यदि चरित्रवान थे तो वीर्यवान भी थे। उनके सामने यवनों की एक नहीं चल रही थी।
किन्तु मानवता, संस्कार और धर्म से जिनका दूर का परिचय भी नहीं था, ऐसे वचनों ने जब अपनी दाल गलती न देखी तब उन्होंने ब्राह्मणों के समक्ष गायों को खड़ा कर दिया और युद्ध करने लगे। धार्मिक संस्कारों से युक्त 'पालीवाल' गायों पर प्रहार कर ही नहीं सकते थे। इसके अतिरिक्त क्रूर, अधर्मी यवनों ने समस्त जलस्रोतों में गायों का माँस भी डाल दिया जिससे कि पालीवालों को पीने के लिए जल भी अप्राप्य हो गया।
ऐसी स्थिति में पालीवालों को अपनी प्यारी नगरी का त्याग करना पड़ा और वे भारतवर्ष के विभिन्न अंचलों में जा बसे। इस घटना के प्रमाण स्वरूप एक प्राचीन कवि की निम्न पंक्तियाँ उद्धृत की जा सकती हैं
तेरह सौ तिरानवे, घणो मच्यो घमसाण । पाली छोड़ पधारिया, ये पालीवाल पहचान ॥
अस्तु, श्री सूरजमल जी के पूर्वज भी पाली से ही मेवाड़ में आए थे। मेवाड़ के महाराणा ने आपके पूर्वजों को जागीर दी थी।
वंश परम्परा से ही संस्कारवान श्री सूरजमल जी की शीलवान धर्मपत्नी श्रीमती वालीबाई ने उस रात्रि के अन्तिम प्रहर में, अरुणोदय से पूर्व एक अपूर्व स्वप्न देखा
प्रातःकाल की मन्द मन्द, सुरभित, नव चैतन्य प्रदायिनी शीतल बयार प्रवाहित थी। एक बहुत ही सुन्दर, हरा-भरा, फलों से लदा हुआ आम्रवृक्ष था। देवी वालीबाई ने देखा कि वह आम्रवृक्ष उनके मुख में प्रविष्ट हो गया है।
इस अपूर्व एवं अद्भुत स्वप्न को देखकर उनकी निद्रा खुल गई। बहुत समय तक वे विचार करती रहीं कि ऐसे विचित्र स्वप्न का अर्थ क्या हो सकता है ?
जब पतिदेव श्री सूरजमल जी जागृत हुए तब उन्होंने उनसे पूछा
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
"आज प्रभात के आगमन की बेला में मैंने ऐसा स्वप्न देखा। इसका क्या अर्थ हो सकता है? मैं तो कुछ समझ नहीं पा रही। "
सूरजमल जी विचारवान व्यक्ति थे। उन्होंने शुभ घड़ी तथा अन्य शुभ लक्षणों का विचार करके अपनी धर्मपत्नी को बताया
“देवी ! यह स्वप्न तो बहुत ही शुभ है। आम फलों का राजा है। इसकी पत्तियाँ भी शुभ अवसरों पर गृहस्थों के घरों में मंगल-सूचक वन्दनवारों के रूप में सजाई जाती हैं। अतः इस स्वप्न का तो यही अर्थ हो सकता है कि उचित समय पर तुम्हारी कुक्षि से किसी ऐसे पुण्यवान बालक का जन्म होगा जिसका सुयश राजामहाराजाओं के यश से भी अधिक विस्तार पाकर इस धराधाम को आनन्दित करेगा।"
यह सुनकर वालीबाई के हर्ष का कोई पार नहीं रहा। सूरजमल जी भी सन्तोष और आनन्द के भावों में निमग्न हो गए।
फिर जैसा कि हमने आपको बताया, नौ महीने के पश्चात्, संवत् १९६७ की आश्विन शुक्ला चतुर्दशी को समस्त ग्राम में लक्ष्मीस्वरूपा मानी जाने वाली देवी वालीबाई ने हमारे चरितनायक पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री को एक परम सुन्दर, प्रसन्नवदना बालक के रूप में जन्म दिया।
बधाइयाँ बजने लगीं।
आशीर्वादों की वर्षा होने लगी।
और ऐसा होता भी क्यों नहीं? उस पुण्यवान बालक के जन्म के साथ ही उस पूरे ग्राम तथा आसपास के प्रदेश में अनायास ही, सहज रूप से आनन्द का वातावरण बन गया था तथा सुख-समृद्धि की वृद्धि दृष्टिगोचर होने लगी थी। उस ग्राम तथा उस अंचल के निवासी चमत्कृत-से हो गए थे। उन्हें विचार आता था कि देवीस्वरूपिणी वालीबाई के इस पुत्र के जन्म के साथ ही हमारे ग्राम तथा प्रदेश में एकाएक यह कैसा आनन्द का वातावरण बन गया है।
द्वितीया का चन्द्रमा अत्यन्त सुन्दर दिखाई देता है। एक हल्की-सी ज्योतिर्मय रेखा मन को सहज ही आकृष्ट भी करती है। और आनन्दमय भी बना देती है।
वह बालक भी ऐसा ही सुन्दर और तेजवान प्रतीत होता था । फिर द्वितीया का चन्द्र धीरे-धीरे बढ़ने लगता है। उसकी एक-एक कला निखरने लगती है जब तक कि वह पूर्ण चन्द्र की शोभा को धारण न कर ले।
ठीक इसी प्रकार वह बालक भी बड़ा होने लगा।
चन्द्रमा की एक-एक कला के समान ही उस चन्द्रोपम बालक की एक-एक प्रवृत्ति तथा एक-एक गुण दिखाई देने लगे और विकसित होने लगे।
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