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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । दृष्टिगोचर हो सकते हैं। अनेक प्रसंगों को स्वयं पाठकगण जानते निश्चय ही वह शुभ दिवस धन्य था। और वे भाग्यवान मनुष्य भी होंगे।
भी धन्य थे जिन्होंने उस धन्य दिवस को अपनी आँखों से देखा था। अस्तु, गुरुदेव भी अपने भक्तों के आग्रह को कैसे टाल सकते एक सघन, विशाल वटवृक्ष। थे? परिणामतः उन्होंने जालौर संघ को दीक्षा-महोत्सव के आयोजन
अपनी ऊँचाई से आकाश को अंक में भरने के लिए उत्सुक। की स्वीकृति प्रदान कर ही दी।
अपनी लटकती जटाओं से भूमि के आलिंगन के लिए आतुर। ___ गुरुदेव श्री की स्वीकृति मिलनी थी कि संघ में आनन्द की
उस पवित्र, सभी के लिए कल्याणकारी-शुभदा वटवृक्ष के मन्दाकिनी प्रवाहित हो गई। जिस बालक के उज्ज्वल भविष्य का
नीचे गुरुदेव श्री ताराचन्द्र जी महाराज तथा पंडित नारायणचन्द्र विश्वास सभी को हो चुका था, उसकी दीक्षा-महोत्सव का
जी महाराज अपनी सन्त-शिष्य मंडली सहित विराजित थे, कल्याणकारी अवसर प्राप्त होना जालौर संघ के लिए तो एक
शोभायमान थे। अलभ्य वरदानस्वरूप ही था। संघ से प्रार्थना कर यह लाभ लिया जालोर निवासी गैनमल जी बोरा ने गैनमल जी वोरा और उनकी
वटवृक्ष भारतीय संस्कृति का एक मान्य, शुभ प्रतीक है। धर्मपत्नी चुन्नीबाई उनके धर्म के माता-पिता बने।
विस्तार और समृद्धि का प्रतीक! वटवृक्ष की शीतल छाया में
सात्त्विकता और साधना का मधुर सौरभ वातावरण को पवित्र __एक महान महोत्सव की तैयारियाँ अपूर्व उल्लास एवं उमंग के भावों से भर देता है। साथ आरम्भ हो गईं।
भगवान् ऋषभदेव को केवलज्ञान की उपलब्धि वटवृक्ष के तले और फिर आया वि. सं. १९८१ की ज्येष्ठ शुक्ला दशमी का । ही हुई थी। उसी की पवित्र, शीतल छाया और सन्निधि में उन्होंने शुभ दिवस।
हजारों मोक्षार्थी मानवों को दीक्षा प्रदान की थी। उस दिन के सौभाग्य, उसकी आभा, उसके आनन्द का वर्णन तथागत बुद्ध ने वटवृक्ष की छाया में ही वर्षों तक तपाराधना कैसे किया जाय?
की थी और बोधि को प्राप्त हुए थे। वही सूर्य, वही पूर्व दिशा और वही आकाश।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने पंचवटी में वटवृक्ष के नीचे ही अपनी किन्तु जैसे उस दिन के सूर्य में अनन्त प्रकाश तो था ही, साथ
पर्णकुटी बनाई थी। ही ऐसा भी प्रतीत होता था मानो वह सूर्य उस दिन अपनी अनन्त स्पष्ट है कि वटवृक्ष हमारी भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न रश्मियों के अनन्त हाथों से सृष्टि पर अखण्ड आशीर्वाद की वर्षा | अंग रहा है, अतीत काल से ही। भी कर रहा हो।
___उसी एक वटवृक्ष के नीचे आज एक भव्य महोत्सव का सूर्योदय के समय पूर्व दिशा प्रफुल्लित हो जाती है, किन्तु उस आयोजन था। दिन तो वह दिशा मानो दिशा-दिशा को पुकार कर कह रही हो- सन्त-शिरोमणि विराजमान थे, शान्त मुखमुद्रा में। दीक्षार्थी दो 'अरी जागो, तुम्हें पता नहीं क्या कि आज इस पृथ्वी पर भी एक बालकों की प्रतीक्षा थी। और सूर्य उदित होने वाला है।'
जालौर का गगनांगन जैन धर्म की जयजयकार से जीवन्त जब सूर्य उदित होता है तब आकाश अपने ही आनन्द में डूब होकर गूंज रहा था। कर रंग-रंगीले स्वप्नों में खो जाता है।
एक विशाल जुलूस नगर के भीतर से आनन्द और उल्लास Tyा लेकिन उस दिन तो आकाश प्रसन्नता के मारे मानो बौरा-सा दिशा-दिशा में बिखेरता हुआ धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था। दो चपल तनही गया था। उस दिन के आकाश में पक्षियों के मधुर कलरव के अश्वों पर दो बालक-रामलाल और अम्बालाल-सुन्दर, सजीले
अतिरिक्त भी एक ऐसा अश्रुत, अद्भुत संगीत मुखर हो रहा था। वस्त्रों से आवेष्टित बैठे हुए थे। राम-लखन की-सी जोड़ी दिखाई दे जो कानों से नहीं, मन से, आत्मा से सुना जाता है। वह संगीत-जो
| रही थी। हमारे कानों को ही प्रिय नहीं लगता, बल्कि हमारी आत्मा तक को जय-जयकार के पारावार का कोई अन्त नहीं था। आनन्द-विभोर कर देता है।
जुलूस के साथ दोनों बालक उस वटवृक्ष के समीप अन्ततः आ ऐसा था उस शुभ दिन का सूर्य, पूर्व दिशा और आकाश ! पहुँचे।
क्योंकि उस दिन एक महामानव इस असार संसार की धूलि कुछ दूर पर ही अपने-अपने अश्वों से नीचे उतरकर अत्यन्त कीचमय भूमि से शाश्वत शान्ति के साधना-शिखर के प्रथम सोपान विनयभाव से आगे बढ़कर उन्होंने गुरुदेव श्री के पुनीत पाद-पद्मों पर अपने पावन चरण धर रहा था।
में विनम्र वन्दन किया।
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