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। तल से शिखर तक
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अब वह पुनीत बेला आ पहुंची थी जो उन्हीं भाग्यवान पुरुषों शिखर पर आरोहण आरम्भ हुआ। एवं नारियों को प्राप्त होती है, जिन्होंने भव-भव में पुण्यों का संचय किया हो।
मुक्ति-मानसरोवर के राजहंस अपनी ऊँची उड़ान पर चल बालकों के शरीर पर मूल्यवान वस्त्र एवं आभूषण थे-संसार | पड़े थे। के प्रतीक !
श्रमण बनने के पश्चात् पुष्कर मुनि जी महाराज ने अपने सदा-सर्वदा के लिए उनका त्याग करने हेतु वे एकान्त में चले । जीवन के तीन प्रमुख लक्ष्य बनाएगए।
(१) संयम-साधना, (२) ज्ञान-साधना और (३) गुरु-सेवा। जब वे लौटे तब उन्होंने शुभ्र, श्वेत वस्त्र धारण किए हुए थे।
यह तो सारा संसार ही जानता और मानता है कि गुरु के श्वेत वस्त्र मन की धवलता व शान्ति के प्रतीक होते हैं। युद्ध ।
बिना ज्ञान नहीं मिलता। भारतीय संस्कृति में तो यह तथ्य विशेष विराम के लिए श्वेत झंडी दिखाई जाती है। उसी प्रकार मन की रूप से विचारित और प्रमाणित भी हुआ है। दस देश में गरु का शान्ति के लिए श्वेत वस्त्रों का धारण करना ही उपयुक्त माना जाता ।
स्थान उच्चतम माना गया है। एक श्लोक में कहा गया हैहै। वे दोनों वैरागी बालक संसार के अशान्त, राग-द्वेषमय कलुषित वातावरण का त्याग कर, उससे मुक्त होकर अब शान्ति, समता,
अज्ञान तिमिरान्धानां, ज्ञानाअन शलाकया । निर्लोभता और वीतरागता के पथ पर अपने दृढ़ चरण बढ़ा रहे थे।
चक्षुरुन्मीलितं येन, तस्मै श्री गुरुवे नमः ॥ इसी कारण वे रंगीन वस्त्रों का त्याग कर श्वेत वस्त्रों को धारण -अज्ञान के तिमिर से अन्धे व्यक्तियों के नेत्रों को ज्ञान के कर गुरुदेव के चरणों में उपस्थित हुए थे।
अंजन की शलाका से जिन्होंने ज्योतिर्मय कर दिया, ऐसे गुरु को उस समय उन बालकों की शोभा अवर्णनीय थी। ऐसा प्रतीत
नमन है। होता था मानो दो राजहंस पुनीत मानसरोवर की यात्रा के लिए इसी प्रकार अनेक रूपों में गुरु की महिमा एवं महत्त्व को अपने पंख फड़फड़ा रहे हों।
हमारे दर्शन एवं साहित्य में वर्णित किया गया है। यहाँ तक कि उस अद्भुत दृश्य को जिन सहस्रों व्यक्तियों ने उस दिन
माता-पिता से भी अधिक महत्त्व गुरु को प्रदान किया गया है। इस निहारा, वे धन्य हो गए। श्वेत, शुभ्र, सादे वस्त्रधारी उन बाल-द्वय
चिन्तन के पीछे शताब्दियों का गूढ़ और गहन मनन छिपा हुआ है। को देखते ही जन-मेदिनी में से जय-जयकार की गगन भेदी ध्वनि अतः निस्संदेह यह कहा जा सकता है कि गुरु के बिना शिष्य उठी और दिगन्तों तक व्याप्त हो गई।
को न तो अनुभव का अमृत ही प्राप्त होता है और न ज्ञान का
मार्ग। इसीलिए प्राचीन ग्रन्थों में यह भी कहा गया हैमात्र चौदह वर्ष के दो सुकुमार बालक जीवन भर के लिए सत्य, अहिंसा आदि पंच महाव्रतों की अखण्ड साधना का दृढ़
"तित्थयर समो सूरी" संकल्प ग्रहण कर आग्नेय पथ पर अपने अडिग चरण बढ़ा रहे थे। अर्थात्, आचार्य तीर्थंकर के समान है। उनके शरीर कोमल थे, सत्य है।
स्पष्ट है कि गुरु को भगवान् का ही पद प्रदान किया गया है। किन्तु उनके संकल्प की दृढ़ता और अडिगता तो हिमालय की उपनिषदों का भी कथन है-“आचार्यवान्, पुरुषो वेद।"-अतः, भाँति अचल थी।
जिसने गुरु किया, वही ज्ञानी हो सकता है। उस भावविभोर कर देने वाले अनुपम दृश्य को देखकर दर्शकों पुष्कर मुनि जी की अभी बाल्यावस्था थी। वे उसी अवस्था से के नेत्रों से आनन्द एवं आश्चर्य के अश्रु प्रवाहित हो रहे थे और परम मेधावी थे। बाल्यावस्था में स्मरणशक्ति भी विशेष सतेज होती झनझनाते हुए हृदय के तारों से ध्वनि उठ रही थी-धन्य है। धन्य है। अतः तीक्ष्ण बुद्धि, विद्याध्ययन के प्रति अगाध प्रेम तथा बाल्याहै इन बाल मुनियों को।
वस्था इन तीनों के संगम का पूरा-पूरा लाभ लेकर आप बड़े साहस, अध्यवसाय, अटल संकल्प एवं एकाग्रता के साथ विद्याध्ययन में
0000 दीक्षा विधि सानन्द सम्पन्न हुई।
जुट पड़े और अपने भव्य भावी जीवन का निर्माण करने लगे। अब वे बालक मुनि बन गए थे।
उस भव्य महल की एक-एक ईंट को ठोक-बजाकर बड़े ही उनमें से रामलाल जी का नाम मुनि प्रतापमल रखा गया और / यत्न और आस्था के साथ जोड़ना और जमाना आरम्भ किया; और वे पं. नारायणचन्द्र जी महाराज के शिष्य घोषित किए गए, तथा । उस भगीरथ-प्रयल का जो सुफल उन्हें ज्ञान-गंगा के अपने मानस में अम्बालाल जी का नाम पुष्कर मुनिजी रखा गया और वे श्रद्धेय । अवतरण के रूप में मिला, वह आज सुविदित है। आगे के अध्यायों ताराचन्द्र जी महाराज के शिष्य बने।
में हम इस ओर यथाशक्य सकित करने जा भी रहे हैं। A
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