________________
२१८
काल की गति को जानना कठिन ही होता है।
एक दिन बालीबाई अस्वस्थ हो गई।
और वे फिर कभी स्वस्थ हो ही नहीं पाईं।
बीमारी बढ़ती गई और उसका समापन हुआ उनकी देह के अन्त के साथ ही ।
माता का एकाएक देहान्त हो गया।
बालक अम्बालाल हतप्रभ !
यह क्या हो गया ? उसकी इतनी भली, ऐसी देवी स्वरूपिणी, इतनी समतारूपी माता कहाँ चली गई ?
मात्र नी वर्ष का बालक विचार-सागर में गोते लगाने लगाजीवन तो इतना सुन्दर है। किन्तु यह मृत्यु की विभीषिका क्या है और कहाँ से आ धमकती है? किसी भी अजाने क्षण, एकाएक बाज की भाँति क्रूर झपट्टा मारकर यह प्राणी को कहाँ ले जाती है ? क्यों ले जाती है ?
मेरी प्यारी, भली माता को यह इस प्रकार क्यों और कहाँ से
गई ?
क्या यह मृत्यु किसी दिन मुझे भी ऐसे ही उठा ले जायेगी ? यदि यही सत्य है तो फिर इस सांसारिक जीवन की सार्थकता क्या है ?
ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान् महावीर और बुद्ध ने भी कुछ इसी प्रकार से विचार किया था।
आज मात्र नौ वर्ष का बालक अम्बालाल भी नान्देशमा ग्राम में अपनी माता के शव को देखकर यही विचार कर रहा था यह जीवन क्या है ? मृत्यु क्या है' क्या है 'क्या है
जीवन के अक्षयवट में चिन्तन की कल्याणी शाखा प्रशाखाओं का प्रस्फुटन हो चला था।
साधना- शिखर का यात्री
अक्षयवट की शाखाएँ अब विस्तार प्राप्त करेंगी।
इतना असीम, सघन विस्तार, कि उनकी शीतल छाया में वसुधा सिमट जाय।
सारी
सोचने पर कितनी अद्भुत और मनोरम प्रतीत होती है यह कल्पना-कि कहीं, कोई एक ऐसा अमृतोपम अक्षयवट हो, जिसका अनन्त, असीम विस्तार सारी सृष्टि को शरण दे सके।
किन्तु कोरी कल्पना प्रतीत होने वाली यह भावना समय-समय पर ऐसे महापुरुषों के जीवन में साकार स्वरूप ग्रहण करती आई है, जो जीवन के प्रचण्ड ताप से दग्ध-विदग्ध विकल मानवता के
Jain Edonation themational PAPAR
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ
लिए अखण्ड आनन्द और शान्तिमय, सुशीतल आत्मदर्शन हेतु अमर अक्षयवट ही सिद्ध हुए हैं।
उपाध्याय श्री का जीवन ऐसी ही जीवन-ताप से दग्ध मानवता की एक अक्षय शरणस्थली था।
यही हम आपको बताते हैं-किन्तु, क्रमशः ।
क्रम का भंग अव्यवस्था उत्पन्न करता है। अव्यवस्था उपाध्याय श्री को कतई नापसन्द थी। अव्यवस्था अनियम को जन्म देती है। अनियम असंयम का कारण बनता है। असंयम जीवन का विनाश कर देता है। संयम उपाध्याय श्री का मूल मन्त्र था। अतः हमें क्रमशः ही चलने दीजिए
माता की असामयिक मृत्यु के बाद पुत्र को पिता पुनः सिमटार ले आए, स्नेहवश। आखिर वे पिता थे। और एक ऐसे पुत्र के भाग्यवान पिता जो बाल्यकाल में होनहार बिरवान था और अपने जीवन-काल में शीतल शान्तिप्रदाता एक अमर अक्षयवट
पिता सूरजमल जी पुत्र अम्बालाल को अपने साथ सिमटार से तो आए किन्तु बालक अम्बालाल का मानस-चिन्तन तो अब किसी भी ग्राम, नगर, देश या संसार से भी आगे बहुत आगे और जीवन और मृत्यु के भी पार और परे किसी ऐसे लोक में उड़ानें भरने लगा था कि उसे अब अपने जीवन को किसी एक ग्राम तक सीमित करके रखे रखना शक्य प्रतीत नहीं हो रहा था।
उसका मन सिमटार ग्राम में नहीं लग रहा था।
सूरजमल जी ने विवश होकर विचार किया कि शायद अम्बालाल का मन नान्देशमा में ही लगे।
यह सोचकर उन्होंने उसे पुनः नान्देशमा ही भेज दिया।
किन्तु बालक अम्बालाल की मानस-मंजरी का सौरभ अब पल-पल मुक्त आकाश की खोज कर रहा था ।
वह रह तो नान्देशमा में ही रहा था, किन्तु उसके विचार रोके रुक नहीं रहे थे, बाँधे बँध नहीं रहे थे, थामे थम नहीं रहे थे।
जीवन के समस्त व्यापार वह मानों एक तटस्थ भाव से, किन्तु निष्ठापूर्वक ही किए चले जा रहा था। लेकिन किसी एक पक्षी के समान जो रहने के लिए बाध्य तो हो किसी पिंजरे में, मगर जिसकी दृष्टि हो असीम, अनन्त आकाश की ओर।
मानो वह बालक अपने बचपन में ही प्रौढ़ हो गया हो। उन्हीं दिनों एक संयोग उपस्थित हुआ
परावली नामक ग्राम के निवासी एक श्रेष्ठिवर जिनका नाम सेठ अम्बालाल ओरडिया था, अपनी ससुराल नान्देशमा आए। वहाँ
Fer Private & Personal Use Only
awww.jaindlibrary.org 78207800