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श्रद्धा का लहराता समन्दर
शिक्षकों के राष्ट्रीय नेता एवं उदयपुर के विधायक श्री शिवकिशोर सनाढ्य व अन्य सामाजिक व राजनीतिक क्षेत्र के कार्यकर्ता व प्रमुख लोग थे। महाराज साहब ने हम सभी को सन्निकट बिठाया और अपने पैर के तलुओं पर व हाथ के हथेली पर लहराते हुए ध्वज के निशान दिखाये। एक प्रश्नवाचक चिन्ह के साथ मैं स्वयं तुरन्त अपनी हथेलियों में वैसे ही चिन्ह ढूँढने को तत्पर हुआ, और मैंने जीर देकर महाराज साहब को कहा कि मेरे हाथों में भी ऐसे चिन्ह दृष्टिगोचर हो रहे हैं। महाराज साहब ने कहा कि ये चिन्ह साधु-जीवन का संकित करते हैं, क्या तुम्हें भी साधु बनना है ? यह सुनते ही मुझे दृष्टिगत होने वाले थे चिन्ह सहसा लुप्त दिखाई दिये तब उन्होंने और समीप बुलाकर उन चिन्हों से पहचान कराई। यह घटना उनके ज्योतिषीय ज्ञान को भी परिलक्षित करती है।
मैंने उनके जीवन की कई घटनाओं का साक्षात्कार किया, उससे मुझे लगा कि वे कोई व्यक्ति नहीं अपितु स्वयं एक संस्था थे। उनका व्यावहारिक पक्ष इतना मजबूत था कि उनके अनुकरण मात्र से ही व्यक्ति महान बन जाता है श्रमण संघ के वर्तमान आचार्य पूज्य श्री देवेन्द्र मुनि जी शास्त्री उनमें से एक हैं उन्होंने जैन जगत में साहित्य का अंबार लगा कर सम्पूर्ण विश्व में तहलका मचा दिया है, उनकी पुस्तकों का अंग्रेजी अनुवाद हो रहा है, और देश-विदेश में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। न गुरु ने विद्यालय का मुँह देखा और न शिष्य आचार्य देवेन्द्र ने, लेकिन उनका साहित्यिक वर्चस्व आज सर्वज्ञात है।
पूज्य गुरुदेव के महाप्रयाण एवं उनके अंतिम संस्कार से सम्बन्धित समस्त घटनाक्रमों से मैं अत्यन्त नजदीक से जुड़ा रहा, समाचार-पत्रों, रेडियो और टी. बी. प्रसारण से लेकर अन्य व्यवस्थाओं के दौरान पूज्य गुरुदेव के प्रति जो अनन्य भक्ति मैने देखी, भक्तों का भारी तादाद में उमड़ना और उनके अन्तिम दर्शनों हेतु भक्तों की होड़ का जो साक्षात्कार किया, वह मेरे जीवन का एक अविस्मरणीय अनुभव है। यह सब पूज्य गुरुदेव के प्रतिभाशाली एवं असाधारण व्यक्तित्व का ही अमिट शिलालेख है।
बेजोड़ इतिहास का सृजन कर गये
-आचार्य डॉ. छगनलाल शास्त्री (विजिटिंग प्रोफेसर मद्रास विश्वविद्यालय)
निःसन्देह परमाराध्य उपाध्यायश्री धार्मिक जगत् के एक ऐसे परम उज्ज्वल, दिव्य प्रकाश स्तम्भ थे, जिसके द्युतिमय आलोक में पथप्रान्त मानवों ने जीवन की सही दिशा प्राप्त की। वे एक ऐसे बेजोड़ इतिहास का सृजन कर गये, जो युग-युगान्तर - पर्यन्त अहिंसा, विश्व वात्सल्य, समता और सौमनस्य का पावन संदेश प्रदान करता रहेगा।
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आपश्री के वे परमाराध्य गुरुदेव थे, जिनकी छत्रछाया में फूलते-फलते आप विकास की मंजिल पर उत्तरोत्तर बढ़ते गये, श्रमणसंघ के सर्वोच्च पद पर समासीन हुए। आपके पदारोहण दिवस पर उपाध्यायप्रवर कितने हर्षित, उल्लसित और आत्मपरितुष्ट हुए, वर्णनातीत है। जिस सुकुमार पौधे का अपने श्रम और साधना के दिव्य सलिल से सिञ्चन किया, उसे एक सुविशाल सहस्र शाखी वट-यक्ष के रूप में देखकर उनके हृदय में आत्म-परितोष का हर्ष मानो समा नहीं रहा था। आपश्री को उन गुरुवर्य की छत्रछाया चिरकाल तक प्राप्त रहेगी, ऐसी शुभाशा हम सब अपने मन में संजोये थे, किन्तु लिखते हुए चित्त बड़ा शोक-संविग्न हो उठता है, नियति को यह स्वीकार नहीं था उसके एक ही क्रूर पंजे के आघात ने वह सब घटित कर डाला, जिसकी कल्पना तक नहीं थी।
यद्यपि आप एक परम प्रबुद्ध मनीषी हैं, उद्भट ज्ञानी हैं, आत्मजयी योगी हैं, किन्तु इस घटना से आपके हृदय पर जो कुलिशोपम आघात पहुँचा है, उसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है।
अन्तर्ज्ञान के संस्पर्श द्वारा इस भयावह घाव पर मरहम पट्टी करना ही अब एकमात्र शरण्य है। विज्ञेषु किं बहुना ।
तीर्थ गुरु पुष्कर
- प्रकाश संचालाल बाफणा (औरंगाबाद)
महामहिम सद्गुरुवर्य उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. श्रमण संघ के एक वरिष्ठ महामेधावी उपाध्याय थे। उपाध्याय जैसे गौरवपूर्ण पद पर आसीन होने पर भी आपनी को अभिमान स्पर्श नहीं कर सका था, आप सरल और निश्चित व्यक्तित्व, धीर, शान्त प्रकृति के धनी थे। आपका अकृत्रिम व्यवहार देखकर श्रद्धालुगण सहज प्रभावित होते थे। यह एक परखा हुआ सिद्धान्त है कि वाणी से नहीं व्यवहार से व्यक्तित्व को देखा जाता है। व्यवहार ही जीवन दर्पण है, उसी में जीवन का तथ्य, सत्य और कथ्य सभी प्रतिबिम्बित होते हैं, व्यवहार जीवन की कसौटी है य सद्गुरुवर्य उस कसौटी पर पूर्ण रूप से खरे उतरे थे।
मैंने श्रद्धेय गुरुदेवश्री के अनेकों बार दर्शन किए, जितनी भी वार दर्शन किए, उतनी ही बार आनंद की अनुभूति हुई। आपका नाम पुष्कर था। पुष्कर वैदिक परम्परा का तीर्थ गुरु रहा है, अन्य तीर्थों की यात्रा करने वाला व्यक्ति यदि पुष्कर तीर्थ में स्नान न करे तो उसकी तीर्थ यात्रा अपूर्ण मानी जाती है, वैसे ही गुरुदेव जंगम तीर्थ थे, उनके दर्शन से जीवन आनंद-विभोर हो जाता था। कोई भी जिज्ञासु आपश्री के पास पहुँचता, उसका सही समाधान होता, आपश्री की वाणी मधुर थी तो मन भी मधुर था। यदि आगम की
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