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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । गुरुदेवश्री की साधना बहुत ही गजब की थी जिसका हमें एक मन सदा धर्म-साधना में लगा रहे। गुरुदेवश्री के चरणों में बार नहीं, बीसों बार अनुभव हुआ। सन् १९९० में गुरुदेवश्री का । कोटि-कोटि वंदन। मंगलमय वर्षावास सादड़ी में हुआ और उस वर्षावास में हमें गुरुदेवश्री की सेवा करने का सौभाग्य मिला। गुरुदेव की असीम
निष्पृह गुरुदेवश्री कृपा हमारे पर रही। वस्तुतः गुरुदेवश्री कितने महान् थे। उसका वर्णन हम नहीं कर सकते। उनके चरणों में कोटि-कोटि वन्दन।
-देवीचंद रतनचंद रांका (सिकन्दराबाद) सिवानची प्रान्त में परम श्रद्धेय गुरुदेवश्री का एकछत्र साम्राज्य
था। लगभग दो शतक से भी अधिक समय हो गया, जब आचार्य तीन पीढ़ियों की सेवा
अमरसिंह जी म. की शिष्य परम्परा उस प्रान्त में विचरती रही है, -हिम्मतसिंह मेहता (जयपुर)
हमारा ग्राम राखी ऐसा मध्य केन्द्र में बसा हुआ है कि मोकलसर से
यदि किसी संत को खण्डप भारड़ा पचारना है तो राखी पधारना ही महास्थविर श्री ताराचन्द्र जी म. जब बाल्यकाल में थे, तब होगा। यदि किसी को मोकलसर से कर्मावास समदड़ी पधारना है तो मेरी पूजनीया मातेश्वरी सुगनकुंवर भी लघुवय में थीं, दोनों का राखी पधारना होगा, इस प्रकार प्रतिवर्ष गुरु भगवन्तों का और बाल्यकाल एक साथ बीता, ताराचंद्र जी म. ने दीक्षा ग्रहण की, पर | महासतीवृंद के दर्शनों का लाभ अनेकों बार हमें मिलता रहा। मेरी मातेश्वरी दीक्षा ग्रहण नहीं कर सकीं किन्तु दीक्षित साध्वी की _महास्थविर श्री ताराचंद्र जी म. आदि संत भगवन्त के दर्शनों तरह उन्होंने जीवन जीया। वे सुश्राविका थीं उनके जीवन के का सौभाग्य हमें बाल्यकाल से ही मिलता रहा। हमारे माता-पिता, कण-कण में धर्म की भावना ओतप्रोत थी, उनके पवित्र संस्कार
गुरुदेवों के प्रति अनन्य आस्थावान् थे। हमारे जीवन में भी आए। सन् १९४५ की ग्रीष्म ऋतु थी, श्रद्धेय पूज्य गुरुदेवश्री ताराचन्द्र जी म., श्री पुष्कर मुनिजी म. आदि संत
हमारी पूजनीया मातेश्वरी की यह हार्दिक तमन्ना थी कि हमारे
ग्राम में गुरुदेवों का आगमन तो होता है किन्तु एक या दो दिन से उदयपुर पधारे, शाम के समय पुष्कर मुनिजी म. गोचरी के लिए
अधिक नहीं विराजते। कभी इस क्षेत्र में गुरु भगवन्तों का चातुर्मास पधारे, तीसरी मंजिल से गोचरी लेकर सीढ़ियाँ उतर रहे थे,
भी हम करा सकें तो हम बहुत ही सौभाग्यशाली होंगे। माता-पिता भयंकर गर्मी से महाराजश्री को चक्कर आ गया और सीढ़ियों से
के रहते हुए उनकी मनोकामना पूर्ण नहीं हो सकी। मेरे आदरणीय नीचे गिर पड़े, सिर में भयंकर चोट आई, बेहोश हो गए। काफी
ज्येष्ठ भ्राता रतनचंद जी रांका ने सोचा कि माता-पिता की भावना खून गया, उस रुग्ण अवस्था में माताजी ने मुझे आदेश दिया कि
को मूर्त रूप देना हमारा दायित्व है और इसी भव्य भावना से तुझे इस अवसर पर गुरुदेवश्री की सेवा करनी चाहिए और माँ के
उत्प्रेरित होकर उन्होंने धर्म स्थानक का निर्माण करवाया। अतिथियों आदेश को शिरोधार्य कर मुझे उस समय सेवा का अवसर मिला।
के लिए पंचायती नोहरे का निर्माण करवाया, छोटा गाँव होने से राजकीय सेवा के कारण मुझे जयपुर रहना पड़ा, सन् १९५३, अन्य सुख-सुविधाएँ भी दर्शनार्थियों के लिए संभव नहीं थीं, अतः १९५५ और १९५६ इन तीन वर्षों में गुरुदेव के तीन वर्षावास सभी प्रकार की सामग्री उन्होंने संजोई और गुरुदेवश्री से मद्रास, जयपुर में हुए तथा परम विदुषी साध्वीरत्नश्री सोहनकुंवरजी म. के बैंगलोर, सिकन्दराबाद और उदयपुर वर्षावास में निरन्तर प्रार्थना वर्षावास भी जयपुर हुए। उन चातुर्मासों में मेरी माताजी प्रायः करते रहे कि राखी पर आपकी कृपा होनी चाहिए। सन् १९८१ में महासतीजी के सान्निध्य में ही विराजती थीं। माताजी में सुश्राविका हमारा संघ नाथद्वारा पहुँचा, उस समय नाथद्वारा में म. प्र., मेवाड़ के सारे सद्गुण विद्यमान थे और उन्हें गुरुदेव कहा करते थे, और मारवाड़ के बीसों संघ उपस्थित थे। सबसे छोटा संघ हमारा इन्होंने साध्वी के श्वेत वस्त्र धारण नहीं किये हैं पर साध्वी के गुण था पर गुरुदेवश्री ने हमारे संघ की प्रार्थना को स्वीकार किया और इनमें विद्यमान हैं, इसलिए वे उन्हें स्नेह और सद्भाव के साथ राखी संघ को वर्षावास का लाभ मिला। हमने गुरुदेवश्री से यह भी 'काला महाराज' कहते थे।
प्रार्थना की कि गुरुदेवश्री महासती श्री शीलकुँवरजी म. का ____माता के सुसंस्कारों का ही यह सुफल है कि राजकीय सेवा से ।
चातुर्मास भी हमें मिलना चाहिए ताकि चतुर्विध संघ उस छोटे से निवृत्त होने के पश्चात् मैं १५ वर्षों से सामायिक, स्वाध्याय आदि
क्षेत्र में विराजकर धर्म की अपूर्व प्रभावना करे। दयालु गुरुदेव ने की आराधना में लगा हुआ हूँ, मैंने महास्थविर श्री ताराचन्द्र जी
हमारी प्रार्थना को स्वीकार किया और चतुर्विध संघ के साथ म., उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. और आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी
वर्षावास सानंद संपन्न हुआ। म. इन तीन पीढ़ियों की सेवा की है और प्रायः प्रतिवर्ष मैं दर्शनों हमारे पूज्य भाई सा. ने इस वर्षावास को पूर्ण सफल बनाने के के लिए सपरिवार जाता रहा हूँ, चद्दर समारोह के अवसर पर भी } लिए जी-जान से प्रयास किया और हमारे आग्रह को सम्मान देकर गया था और गुरुदेव ने मुझे अंतिम आशीर्वाद भी दिया कि मेरा सिवानची प्रान्त के तथा अन्य भारत के विविध अंचलों से हजारों
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