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| श्रद्धा का लहराता समन्दर
२०९
गुरुदेव के प्रति राज के उद्गार
पुष्कर गुरु के चरणों में, अन्तर के उद्गार। जहाँ कहीं विद्यमान हों, वन्दन करें स्वीकार ॥१॥
देश देशावर घूमकर, स्वपर किया कल्याण। उपाध्यायपद पा लिया, अध्यात्म योगी महान् ॥१४॥ अध्यात्म योगी आप थे, किये करोड़ों जाप। जो भी आया शरण में, मिट गया सब सन्ताप॥१५॥
इस जीवन पर आपका, सदा रहा उपकार। भूल नहीं मैं पाऊँगा, वन्दन बारम्बार ॥२॥
पुष्कर गुरुवर आपतो, भक्तों के भगवान। श्रमण-संघ की आपने, खूब बढ़ाई शान ॥३॥
श्रमणसंघ में आपका, गौरव मय था स्थान। महावीर के शासन में, चमके भानु समान ॥१६॥
उपकारी गुरुदेव को, नित्य नमाऊँ शीश। अपना भी उद्धार हो, माँगू यह आशीष॥४॥
पुष्कर गुरुवर आपके, हित मित मीठे बैन। श्रमणसंघ को आपने, बहुत बड़ी दी देन।।१७।।
शिष्य रत्न हैं आपके, आचार्यश्री देवेन्द्र। श्रमणसंघ के आचार्य को, वन्दन करे राजेन्द्र ॥१८॥
उपाध्याय पुष्कर गुरु जिनशासन के ताज। विनय सहित वन्दन करे, शीश झुका यह "राज"॥५॥
पुष्कर गुरु के शिष्य हैं, श्रमणसंघ सरताज। आचार्यश्री देवेन्द्र पर, हम सबको है नाज॥१९॥
गुरुवर आप महान थे, किस विध करूँ बखान। आत्मज्ञान समदर्शिता, ज्ञानवान गुणवान ॥६॥
चादर का समारोह था, उदयापुर के माय। चार तीर्थ का मेला था, सबका मन हरषाय ॥२०॥
आधार स्तम्भ गुरुदेव थे, इस जीवन के आप। चरणों का सेवक बनूँ, मिटे पाप सन्ताप॥७॥
दोसो ऊपर सन्त सती, लाखों थे नरनार। आचार्यश्री देवेन्द्र को, सौदा संघ का भार ॥२१॥
इस जीवन पर सदा रहा, गुरुवर का उपकार। पामर प्राणी 'राज' है, करदो बड़ा पार ॥८॥
चादर अर्पण हो गई, हो गये सब शुभ काम। आशीष देकर आपतो, पहुँचे शिव सुख धाम।।२२।।
तन से मन से वचन से, करता हूँ गुणगान। गुरुवर के गुणगान से, हो जावे कल्याण॥९॥
तारक गुरु ग्रन्थालय में, बन गया पावन धाम। पुष्कर गुरुवर आपतो, कर गये जग में नाम ॥२३॥
नान्देशमा के नन्द थे, समटाल के सन्त। दीक्षा ली जालोर में, बने सन्त भगवन्त॥१०॥
तरयासी वर्ष में, त्यागी नश्वर देह। अजर अमर यह आत्मा, कर गई सबसे नेह ॥२४॥
धन्य-धन्य माता बाली, धन्य सूरज के लाल। धन्य गाम सेमटाल है, धन्य कुटुम्ब पालीवाल ॥११॥
प्रथम पुण्य तिथि आपकी, मना रहे हम आज। श्रद्धा सुमन अर्पित करे, नत मस्तक हो "राज"॥२५॥
तारक गुरुवर आपके, तारा भव जल पार। गुरु चरणों में आपने, पाया ज्ञान अपार ॥१२॥
दीक्षा लेकर आपने, किया धर्म प्रचार। आगम का अध्ययन किया, पाला पंचाचार॥१३॥
ऐसा कोई भी कार्य जिसके साथ पीड़ा और हिंसा जुड़ी है धर्म की संज्ञा कैसे पा सकता है?
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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