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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।। समर्पित भाव से करें। अतः इस अवसर पर उनके चरण कमलों में । कारण जैन मुनि बन जाए यह आश्चर्य की बात नहीं है। अनेक मेरा शतशः नमन।
महान् संत लघुवय में ही संत बनने की ठान लेते हैं, किन्तु ब्राह्मण
बालक अम्बालाल ने अपनी अल्पवय में ही बिना जैन शास्त्र पढ़े, शत-शत वंदना बिना जैन-दर्शन, जैनाचार अथवा जैनत्व को समझे और बिना उस
उम्र तक पहुँचे, जबकि व्यक्ति अपनी विकसित और प्रबुद्ध बुद्धि से -कमला जैन 'जीजी' हिताहित अथवा सत्यासत्य का निर्णय कर सकता है, एकदम जैन
साधु बनने का निर्णय कर लिया और बिना परिवार या अपने सन्त शब्द का उच्चारण करते ही हमारे मानस चक्षुओं के
समाज की परवाह किये दृढ़ता के साथ जैन-दीक्षा ग्रहण कर ली समक्ष किसी ऐसी महान् आत्मा का मूर्तिमान रूप सामने आ जाता
तथा साधना के कंटकाकीर्ण पथ पर अग्रसर हो चला। दूसरे शब्दों है, जिसका समग्र आन्तरिक एवं बाह्य जीवन शुभ्र, सात्विक,
में साधना के दुरूह सोपानों पर उत्तरोत्तर दृढ़ता से चढ़ता चला निर्विकार, सतत जागरूक, साधनामय, सांसारिक प्रपंचों से विलग,
गया। समत्वपूर्ण, परमात्म निमग्न, आत्मा केन्द्रित, ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा सरलता, सौम्यता आदि दिव्य गुणों का कोष हो। ऐसे रूप की
जाज्वल्यमान जीवन कल्पना करते ही हमारा मन स्वतः अनिर्वचनीय श्रद्धा और माधुर्य इस भूतल पर जीते सभी हैं, किन्तु उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी से भर जाता है। उस मोक्षमार्ग के पथिक की महत्ता का वर्णन महाराज के समान ज्वलंत अथवा जीवंत जीवन बिरले ही जी पाते असंख्य शब्दों अथवा वाक्यों से भी किया नहीं जा सकता।
हैं जिनके बहुमुखी व्यक्तित्व तथा अनुकरणीय जीवन से सम्पर्क में
आने वाला प्रत्येक व्यक्ति सहज ही कुछ न कुछ लाभ लेने के लिये आज मैं ऐसे ही महामना संत को अपने अन्तर्मानस की सम्पूर्ण
स्वतः ही बाध्य हो जाता था। उन्हें मात्र आगमों का ही नहीं अपितु आस्था लेकर श्रद्धांजलि अर्पण कर रही हूँ। वे संत थे परम श्रद्धेय,
ज्योतिष आदि अनेक विद्याओं का भी गूढ ज्ञान था। सदा ही उनका उत्कृष्ट तत्वज्ञानी, जैन दर्शन के गंभीर ज्ञाता, ज्योतिष एवं
चेहरा माधुर्य एवं आकर्षक मुस्कुराहट से मंडित रहता था। यही सामुद्रिक आदि शास्त्रों के अध्येता तथा अनेक मंत्र-सिद्धियों के
कारण था कि प्रत्येक दर्शनार्थी निःसंकोच उनके चरणों में बैठकर स्वामी पूज्य प्रवर स्वर्गीय गुरुदेवश्री पुष्करमुनि जी म.। असंख्य
अपने स्वाध्याय में बाधक समस्याओं का अथवा जीवन को उन्नत व्यक्तियों ने उनकी अद्भुत सिद्धियों से और मात्र उनके मुखारबिंद
बनाने में आने वाली परेशानियों का निराकरण करने का उपाय से मांगलिक सुनकर भी मनचाहा लाभ प्राप्त किया है। प्रतिदिन
पूछने में हिचकिचाता नहीं था। गुरुदेव अति स्नेह और सहज भाव गहन ध्यानोपरांत जब दोपहर ठीक बारह बजे वे मंगल-मंत्र का
से प्रत्येक जिज्ञासु के प्रश्नों का उत्तर देकर उनके सहायक बनते उच्चारण करते थे, उस बेला में सैंकड़ों व्यक्ति उपस्थित रहकर उसे
थे। अमीर, गरीब, विद्वान अथवा अनपढ़ के लिये उनके करुणा, आशीर्वाद के समान ग्रहण करते थे।
सौहार्द पूरित परोपकारी मानस में तनिक भी भेदभाव नहीं था। चमत्कारिक चरण
मधुर व्यक्तित्व के समान ही उनकी प्रवचनशैली भी अत्यन्त "पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं।" यह एक बहुत । मधुर और आकर्षक थी। गहन और गूढागम विषयों को भी चे पुरानी कहावत है और निश्चय ही प्रत्येक कहावत के मूल में सत्य अत्यन्त सरल तरीके से श्रोताओं को समझा देने की अद्भुत क्षमता का अंश होता है। ज्योतिष एवं सामुद्रिक विद्या के ज्ञाता, हाथों की, रखते थे और इसी बीच हास्यरस आदि से परिपूर्ण शिक्षाप्रद ललाट की अथवा पैरों की रेखाओं को देखकर ही व्यक्ति के
उदाहरण आदि सुनाकर लोगों को मंत्रमुग्ध करते हुए ऊबने नहीं भविष्य के बारे में बहुत कुछ बता देते हैं। पालने में सोते हुए ।
देते थे। यही कारण था कि प्रवचनाभिलाषी, प्रारंभ से अंत तक बालक के पाँव भी स्वतः दिखाई देते हैं अतः उनकी गठन और
समान उत्साह से घंटों उनकी पीयूषपूर्ण वाणी श्रवण करते थे। रेखाओं पर दृष्टिपात करके उसका भविष्य जान लिया जाता होगा। किन्तु ब्राह्मण कुलोत्पन्न शिशु अम्बालाल के पैरों की रेखाओं को तो कुछ मधुर संस्मरण अगर किसी शास्त्रविद् ने देखा भी होगा तो वह, यह न बता सका मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे बचपन से ही श्रमणसंघ की उस होगा कि यह शिशु बाल्यावस्था में ही जैन-संत बन जाएगा। अबोध स्वर्णिम विभूति गुरुदेवश्री के दर्शन एवं सम्पर्क का असंख्य बार अम्बालाल के चमत्कारिक चरणों की रेखाएँ तो किसी देवी शक्ति ने अवसर मिला। मुझे खूब याद है जब मैं बहुत छोटी थी, एक बार ही देखी होंगी और उसी महाशक्ति ने शैशवावस्था से बाल्यावस्था में । अपने पिताजी समाजरत्न पं. शोभाचन्द्र जी 'भारिल्ल' के साथ आते न आते उन्हें भविष्य के महान् संत बनने की प्रेरणा देनी 1 महाराजश्री के दर्शनार्थ गई थी। उस समय उन्होंने दूर से ही मेरे प्रारम्भ कर दी होगी तथा अपनी वरद छाया में सहेज कर उसके । पैर देखकर कहा था-'भारिल्ल साहब! कमला के पैरों में पद्म-रेखा नन्हें मानस को गढ़ना प्रारम्भ कर दिया होगा। क्योंकि जैन कुल में है। यह खूब भ्रमण करेगी।' उपाध्याय श्री का कथन यथार्थ साबित जन्मा बालक तो प्रारम्भ से ही जैन संतों के सम्पर्क में आने के हुआ। भारत की प्रत्येक मुख्य दिशा की यात्रा और पहाड़ी, रमणीय
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