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श्रद्धा का लहराता समन्दर
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उपाध्यायश्री हुए कुछ अस्वस्थ बनने लगी देह निर्बल आत्मा सबल तन में व्याधि मन में समाधि
शिष्यगण पर हुआ-अनभ्र वज्रापात भक्त जन सकल संघ भी स्तब्ध रह गया!
चतुर्विध संघ से कर-क्षमापना कर संलेखना ग्रहण किया संथारा
की आलोचना निज आत्म की अहर्निश आत्मा में रमण रागद्वेष से परे समताभाव में लीन अध्यात्मयोगी हो गया निर्मल भावों में लीन!
विक्रमी संवत् २०५० चैत्र शुक्ला एकादशी २ अप्रैल ईस्वी सन् १९९३ को वह संयमी-भानु सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्र की पर्वत श्रृंखलाओं की
ओट में खो गया। संयमी जीवन पर चढ़ा संथारे का 'शिखर' गुरु 'पुष्कर' चिर निद्रा में सो गया.......॥ एक ज्योतिर्मय जीवन तिरोहित हो गया निज व्यक्तित्व की छोड़ सुवास अनन्त में न जाने कहाँ खो गया...
प्रशांत मुख मुद्रा 'सागर वर गंभीरा चन्द्र-सा निर्मल देखो धो रहा है तपाग्नि से कलिमल संसार-सागर से कमलवत् निर्लिप्त हो गया.... एक ज्योतिर्मय जीवन तिरोहित हो गया निज व्यक्तित्व की छोड़ सुवास अनंत में न जाने कहाँ खो गया...॥
आचार्यश्री मानतुङ्ग जी ने पाई थी मुक्ति कारागृह से कर आदि-जिन की भक्ति! गुरुवर ने भी संलेषना के माध्यम से ४२ घंटे में ही देह-कारागार से कर लिया स्वतंत्र निज आतम को देवेन्द्राचार्य हतप्रभ रह गए
भारत का जन-जन उदयपुर का कण-कण झीलों में करती नर्तन लघु-लघु लहर कहती है मानो हे गुरुवर आप थे, रहेंगे
और हैंवंदनीय! दर्शनीय!! पूजनीय-अर्चनीय!! अभिनंदनीय-प्रशंसनीय!!! क्योंकि आप थे"संयम सुमेरु"
म समेत साधना के पथ पर आरूढ़ होने के बाद कभी पीछे मुड़कर देखा तक भी नहीं। आप थे“अध्यात्मयोगी"
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