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रमाशङ्कर नामा56, मुनेः स्तोत्र लिखाम्यहो भवेयुर्यदि दोषा मे, क्षमायाः पात्रतां भजे ॥ ५४ ॥
कवेः कृत्यं न वेद्येकं, गुणेष्वेकं न वा पुनः । गुरोरेका कृपां मन्ये वदाम्येवं लिखाम्यहम् ॥५५ ॥
हे तपोधनी ! हे महामुनि !
हे विश्ववंद्य
हे जग के
शुभ वरदान,
हे पूर्ण काम,
तुम गुण निधान,
नित शत-शत वन्दन
नित आराधन
कोटि-कोटि अभिनन्दन !
तुम पावन
गंगा जल समान, तुम कोटि-कोटि
रवि-रश्मि-किरण-से दीप्तिमान !
तुमसे पावन हुई
गगन तक
फैली शीतल
हिम गौरी शंकर
सिद्ध श्रेणि,
तुम थे हे अरिहन्त !
सम्यग्दर्शन,
ज्ञान चरित मय
महोत्तम तीर्थराज - पावन त्रिवेणी, हे पुण्यधाम !
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हे महामुनि
हे सत्यकाम !
तुमको अर्पित
श्रद्धा के सुमन
दीप अर्चन के,
तुम्हें समर्पित,
अर्घ्य सुवासित
अगुरु धूप
पावन चन्दन के,
हे मृत्युञ्जय,
कालजयी,
अजरामर,
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
अहो ! गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज के स्तोत्र को मैं रमाशङ्कर नामधारी लिखता हूँ। यदि मेरे इस स्तोत्र में कोई दोष हों तो मैं क्षमा की पात्रता को स्वीकार करता हूँ ॥ ५४ ॥
हे
हे सदानन्द,
हे निर्विकार,
तुम्हें स्पर्श कर
हुई सुपावन सिद्ध भूमि,
वह देवभूमि,
वह तपोभूमि
कवि के कृत्य को नहीं जानता, न कवि के गुणों में से एक गुण को पहचानता हूँ मैं केवल मेरे गुरु महाराज की कृपा को मानता है, जिसके द्वारा में ऐसा कहता हूँ और ऐसी रचना करता हूँ॥५५॥
मस्तक पर रख
देव वृन्द गणइन्द्रशची
रवि-शशि
कृतकृत्य हुई
वह धरा धूलि,
तव चरम-कमल की
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!
तारक वृन्दारकज्योतिमान हैं,
दीप्तिमान हैं,
है त्रिभुवन आलोकित
या उज्ज्वल आलोक तुम्हारा,
युगों-युगों तक
व्याप्त रहेगा
धरा गगन में
तीन भुवन में
सुयश तुम्हारा,
वीणा वाणी,
श्वेता धवला
गाएगी नित
गीत तुम्हारा ।
हे जगद्वंध,
हे जग पूजित,
स्वीकार करो
हम सब जन-जन के
-विज्ञान भारिल्ल
पूजन,
आराधन,
अभिनन्दन,
शत-शत वन्दन !
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