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श्रद्धा का लहराता समन्दर
हमने अनेक बार गुरुदेवश्री के मंगलपाठ का अनुभव किया, हमारी अनंत आस्था उनके चरणों में रही। चद्दर समारोह के अवसर पर औरंगाबाद संघ पूरी ट्रेन लेकर उदयपुर पहुँचा और चद्दर समारोह सम्पन्न कर जब हम औरंगाबाद उदयपुर से पहुंचे तो हमें सूचना मिली कि उपाध्यायश्री का स्वास्थ्य अस्वस्थ हो गया है। और उन्होंने संथारा ग्रहण कर लिया है। हम प्लेन से पुनः उदयपुर पहुँचे दर्शन किये संथारे में आपश्री की बहुत ही उत्कृष्ट भावना रही आज ये हमारे बीच नहीं है किन्तु उनका मंगलमय जीवन और उपदेश हम सभी के लिए वरदान रूप रहेगा। उनके श्रीचरणों में अनंत श्रद्धा के साथ कोटि-कोटि वंदन-अभिनन्दन।
ज्योतिर्मय व्यक्तित्व के धनी
-शांतिलाल दूगड़ (नासिक पूर्व युवा अध्यक्ष )
सन् १९४७ जिस समय देश परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त हुआ और सर्वतंत्र स्वतंत्र हुआ, उस वर्ष गुरुदेवश्री का वर्षावास नासिक में था। उसके पूर्व १९३६ में भी गुरुदेवश्री का वर्षावास नासिक में हुआ। इन दोनों वर्षावासों में मेरे परिवार पर गुरुदेवश्री की असीम कृपा रही। सन् १९४७ में में बहुत ही छोटा था, मेरी मातेश्वरी गुरुदेवश्री के प्रति अनन्य आस्थावान हैं, गुरुदेवश्री की असीम कृपा को स्मरण कर वे भावना से विभोर हो जाती हैं।
सन् १९८७ में पूना में संत सम्मेलन हुआ उस संत सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिए उपाध्यायश्री राजस्थान से उग्र विहार कर गुरुदेवश्री नासिक पधारने वाले थे, मैं गुरुदेवश्री की सेवा में ढिंढोरी पहुँचा और मैने गुरुदेवश्री से प्रार्थना की कि हमारा परम् सौभाग्य है कि आप नासिक पधार रहे हैं। नासिक संघ पलक पावड़े बिछाकर आपके पधारने की अपलक प्रतीक्षा कर रहा है। गुरुदेवश्री इस प्रवास में दो दिन नासिक विराजे। उस समय उपाध्यायश्री विशाल मुनि जी म. मंत्री श्री सुमन मुनि जी म. आदि संत भी धुलिया की ओर से विहार करके पधार रहे थे, हमारा स्थानक बहुत ही जीर्ण-शीर्ण स्थिति में चल रहा था, गुरुदेवश्री ने अपने जोशीले भाषण में नासिक के भक्तों को आह्वान किया और गुरुदेवश्री की पावन प्रेरणा से उस समय कुछ चन्दा हुआ और आज जो स्थानक की नव्य भव्य बिल्डिंग खड़ी हुई है उसकी मंगलमय प्रेरणा गुरुदेवश्री की रही। यदि गुरुदेवश्री उस समय प्रेरणा प्रदान नहीं करते तो यह भव्य भवन आज इस रूप में नहीं बन सकता था। गुरुदेवश्री की प्रेरणा से स्थानक बन गया। जो अपने आप में एक बहुत बड़ी उपलब्धि है।
पूना संत सम्मेलन के पश्चात् प्रतिवर्ष में गुरुदेवश्री के दर्शन हेतु पहुँचता रहा और गुरुदेवश्री की भी मेरे पर असीम कृपा रही। आज उनकी भौतिक देह हमारे बीच नहीं है पर गुरुदेवश्री के गुणों का स्मरण कर मेरा हृदय श्रद्धा से नत है किन शब्दों में गुरुदेवश्री
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के गुणों का वर्णन करूँ, यह कुछ समझ में नहीं आता। शब्दों की सीमा है, उन असीम गुणों को व्यक्त नहीं कर पाते। मैं अपने शब्दों में यही निवेदन करना चाहूँगा कि उनका ज्योतिर्मय व्यक्तित्व हम सभी के लिए सदा प्रेरणा स्रोत रहे।
गौरव गरिमामय मंडित व्यक्तित्व
- परमेश्वरलाल धर्माचन (उदयपुर)
परम श्रद्धेय पूज्य गुरुदेव उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. के दर्शन मैंने बहुत ही छोटी उम्र में किए क्योंकि पूज्य पिताश्री चुन्नीलाल जी धर्मावत गुरुदेवश्री के अनन्य भक्तों में से रहे हैं। पूज्य पिताश्री के साथ में मैं गुरुदेवश्री के दर्शन हेतु गया था और पिता श्री के निवेदन पर गुरुदेवश्री ने मुझे सम्यक्त्व दीक्षा भी प्रदान की थी। मैं अपने अध्ययन में व्यस्त रहा और उसके बाद में अपने व्यवसाय में। पूज्य पिताश्री की तरह मैं समय-समय पर गुरुदेवश्री के चरणों में नहीं पहुँच सका, तन भले ही मेरा दूर रहा किन्तु मन मैं तो गुरुदेव बसे हुए थे।
गुरुदेवश्री का सन् १९८८ का वर्षावास इन्दौर में था और वहाँ से विहार कर गुरुदेवश्री उदयपुर पधारे। गुरुदेव श्री का स्वागत समारोह हुआ, उस समय तथा उसके पश्चात् श्री तारक गुरु जैन ग्रंथालय का उद्घाटन हुआ, उस समय मंच का संचालन का दायित्व समाज ने मुझे दिया। संचालन के कार्य को देखकर गुरुदेवश्री आल्हादित हुए और उन्होंने कहा कि तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल है और मुझे प्रसन्नता है कि धर्मावत जी के सामाजिक कार्यों को भी तुम सहर्ष संभाल सकोगे। गुरुदेवश्री का मंगलमय आशीर्वाद मेरे लिए बरदान रूप रहा।
गुरुदेवश्री की असीम कृपा हमारे परिवार पर रही। जब भी गुरुदेवश्री का उदयपुर में पदार्पण हुआ तब हमारे मकान पर गुरुदेवश्री का विराजना रहा, उनके प्रवचन होते रहे। सन् १९९२ में जब गुरुदेवश्री चद्दर समारोह के लिए पधारे, समय बहुत कम था, मकान पर विराजने का समय न होने से आधा घण्टे के लिए ही वे दुकान पर विहरा करते समय विराजे, कितनी असीम कृपा रही गुरुदेवश्री की जब भी मुझे स्मरण आता है तो मेरा हृदय श्रद्धा से नत हो जाता है।
गुरुदेवश्री प्रबल पुण्य के धनी थे, जिसके कारण ही गुरुदेवश्री को योग्यतम सुयोग्य शिष्य मिले जो आज श्रमणसंघ के अधिनायक हैं। गुरुदेवश्री के नेतृत्व में ही उनके शिष्य श्रमणसंघ के अनुशास्ता बनें, यह कितना बड़ा सौभाग्य है गुरु का गुरु तो सदा शिष्य से पराजय की कामना करते हैं, वे चाहते हैं कि उनका शिष्य उनसे आगे बढ़े, अतिजात शिष्य बने श्री देवेन्द्रमुनि जी म. ने अतिजात शिष्य बनकर गुरुदेवश्री की गरिमा में चार चाँद लगाए ।
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