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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । एक ऐसे श्रेष्ठ कलाकार हैं जो अज्ञान-अंधकार में परिभ्रमण करते । स्वर्गवास से अपूरणीय क्षति हुई है। ऐसे गुरुदेव के चरणों में हमारी हुए इधर से उधर ठोकरें खाते हुए जीवन रूपी प्रस्तर को प्रतिमा | भावभीनी वन्दना। बना देते हैं। मेरा परम सौभाग्य रहा है, सद्गुरुदेव के दर्शनों का सौभाग्य अनेकों बार मिला, उनके श्रीचरणों में रहने का अवसर भी [ बहुआयामी और बहुमुखी प्रतिभा के धनी । मिला। मैने सदा ही आपको स्वाध्याय में तल्लीन पाया। पढ़ने और पढ़ाने में आप कितने अधिक दत्त-चित्त हो जाते थे कि आपको
-कनकमल सिंघवी (इन्दौर) ज्ञात ही नहीं होता था, कितना समय हो गया। आप आगम के धर्म और दर्शन के गुरु गंभीर रहस्यों को बहुत ही सरलतम शब्दों में
परम श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी म. का
ओजस्वी व्यक्तित्व बहुआयामी और बहुमुखी था। वे प्रतिपल प्रस्तुत करते जिससे कि वे रहस्य सहज ही समझ में आ जाते थे।
प्रतिक्षण आत्म-साधना के पथ पर बढ़ने वाले तेजस्वी संत होने के आपका जीवन प्रशान्त, सौम्य, मधुर मुस्कान, ज्ञान की ।
साथ-साथ जीवन और समाज में फैली हुई विकृतियों को नष्ट करने DHDS गंभीरता, विचारों की निर्मलता, स्वभाव की सरलता, विनम्रता और
जन-जन के मार्ग को प्रशस्त करने वाले महापुरुष भी थे, एक ओर कोमलता से आपूरित था। आपके प्रवचनों में समन्वय तथा आगमों
उनके व्यक्तित्व में कबीर की तरह स्पष्टवादिता थी तो दूसरी ओर 93 के गम्भीर रहस्य सहज श्रवण करने को मिलते थे। आपके प्रवचनों
भक्त कवि सूरदास का माधुर्य भी उनमें झलकता था। एक ओर संत में नीति की सूक्तियाँ, लोक कथाएँ, बौद्ध कथाएँ और विषय की ।
कवि तुलसीदास का समन्वयवादी दृष्टिकोण उनमें निहारा जा गहराई होती थी। आपकी वाणी के जादू के कारण गंभीर से गंभीर ।
सकता था तो दूसरी ओर सूफी कवि जायसी का स्नेहानुभूति पूर्ण विषय की प्रस्तुति इस प्रकार होती कि श्रोता झूम उठते थे।
स्वर भी उनमें झंकृत था। वे कोमल भी थे तो कठोर भी थे, सरल श्रद्धेय सद्गुरुवर्य जितने सरल और सीधे थे और जितना भी थे और प्राज्ञ भी थे, वे अंतरंग और बहिरंग जीवन में फैले हुए उनका यशस्वी जीवन रहा उतना ही उनका यशस्वी जीवन का अज्ञान अंधकार को नष्ट करने के लिए सतत् प्रयासरत थे। उनका सन्ध्याकाल भी रहा, उस अनंत आस्था के केन्द्र सद्गुरु के । चाहे गद्य साहित्य हो या पद्य साहित्य हो या उनके प्रवचन, सर्वत्र श्रीचरणों में कोटि-कोटि वंदन।
उनका अद्भुत व्यक्तित्व मुखरित होता है, उनके सान्निध्य को पाकर
कितने ही दिशा-विहीन साधक सही दिशा को पाकर अपने जीवन श्रद्धा के दो पुष्प
को धन्य-धन्य अनुभव करते रहे। बंशीलाल लोढ़ा (अहमदनगर)
श्रद्धेय उपाध्यायश्री का जितना भी धार्मिक, दार्शनिक और
कथा साहित्य प्रकाशित हुआ है, उसमें गहन चिन्तन है, शुष्कता परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. का वर्षावास सन् । नहीं, सरसता है और साथ ही अनुभूति की तरलता है। कवि हृदय १९८७ में आचार्यसम्राट् श्री आनन्द ऋषि जी म. की सेवा में } की सरसता और वक्ता की प्रभविष्णुता उनके साहित्य में एक साथ अहमदनगर में हुआ। उस वर्षावास में उपाध्यायश्री के निकट देखी जा सकती है, जितनी उन्हें काव्य साहित्य में सफलता प्राप्त परिचय में मैं आया। इसके पूर्व घोड़नदी और पूना वर्षावास सम्पन्न } हुई है उतनी ही गद्य साहित्य में भी। कथा साहित्य को पढ़ते-पढ़ते कर उपाध्यायश्री जी अपने शिष्यों के साथ अहमदनगर आये थे तो पाठक आनन्द से झूमने लगता है, कथा साहित्य की सबसे बड़ी तब उनके दर्शनों का सौभाग्य मिला था किन्तु विशेष परिचय नहीं विशेषता है कि उसमें पांडित्य का प्रदर्शन नहीं है किन्तु जो भी बात हो पाया किन्तु प्रस्तुत वर्षावास में उपाध्यायश्री जी की असीम कृपा कही गई है, वह इतनी सीधी और सरल है, पाठक पढ़ते-पढ़ते हमारे पर रही। हमने यह अनुभव किया कि उपाध्यायश्री जी सफल आनन्द-विभोर हो उठता है और वह सदा-सदा के लिए अपने साधक हैं, वे ध्यानयोगी, जपयोगी और ज्ञानयोगी सन्तरत्न हैं। जीवन में पनपते हुए दुर्व्यसनों से मुक्त होने के लिए कटिबद्ध हो हमने अनेकों चमत्कार उनके मंगलपाठ के देखे हैं। उपाध्यायश्री जी जाता है। स्वयं जाप करते थे और जो भी उनकी चरणों में पहुँचता उन्हें वे
श्रद्धेय उपाध्यायश्री क्रांत द्रष्टा संत रत्न थे। उन्होंने देखा जाप करने की पावन प्रेरणा प्रदान करते। उनकी पावन प्रेरणा से ।
मानव का जीवन दो भागों में बँटा हुआ है, आध्यात्मिकता और उत्प्रेरित होकर हजारों व्यक्ति मुँहपत्ती लगाकर जाप करने लगे।
सामाजिकता। इन दोनों के बीच बहुत बड़ी दरार है और उस दरार अहमदनगर वर्षावास के पश्चात् जहाँ भी उपाध्यायश्री | को पाटने के लिए आपने प्रबल प्रयास किया। उन्होंने जैन धर्म को विराजते वहाँ मैं उनके चरणों में दर्शन हेतु पहुँच जाता। जन-जन का धर्म बनाने हेतु अपने पावन प्रवचनों में जीवन शुद्धि अहमदनगर में आचार्यसम्राट् श्री आनन्दऋषि जी म. का स्वर्गवास पर बल दिया। हजारों व्यक्तियों को व्यसनों के द्वारा होने वाली हुआ और ठीक बारह महीने पश्चात् उपाध्यायश्री का उदयपुर में ] हानियों को समझाकर उन्हें त्यागने के लिए प्रेरित किया और स्वर्गवास हो गया। दोनों श्रमणसंघ की महान् हस्तियाँ थीं उनके विवेकपूर्वक हजारों व्यक्तियों ने निर्व्यसन जीवन जीने की प्रतिज्ञाएँ
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