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श्रद्धा का लहराता समन्दर
वह प्राणी वस्तुतः अन्तरात्मा कहलाता है। अन्तरात्मा का परिष्कृत रूप सन्तात्मा परमात्मा के स्वरूप का प्रवर्तन करता है। परमवंध उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. अन्तरात्मा-सन्तात्मा के उत्तम उदाहरण हैं।
उदयपुर के समीप गोगुंदा समुद्रतल से अत्युच्च समतल क्षेत्र हैं, जहाँ की प्राकृतिक सुषमा सहज आकर्षक, समशीतोष्ण जलवायु, रोग को निरोग, विपन्न को सम्पन्न और निष्क्रिय को सक्रिय होने की प्रेरणा प्रदान करता है, उसके समीप सिमटार नामक ब्राह्मण शासन प्रधान ग्राम है। यहाँ श्री सूरजमल जी पालीवाल सम्पन्न और सम्भ्रान्त जागीरदार थे। उनकी ज्येष्ठ पत्नी श्रीमती वालीबाई सदा के लिए अपने पितृगृह-नान्देशमा चली आयी और यहीं पर उनकी कुशल कोख से आश्विन शुक्ला १४, संवत् १९६७ को पुत्र रत्न का जन्म हुआ। नामकरण संस्कार में अम्बालाल की संज्ञा प्रदान की गयी। बालक अम्बालाल के शारीरिक लक्षण यशस्वी, आध्यात्मिक तथा स्व-पर कल्याणकारी नेत्तारं बनने की भविष्यवाणी करते। वित्त की तेजस्विता मति और श्रुत ज्ञान की परिपुष्टि करती । संयोग से जिनपंथी साधु-संस्कार सुलभ होते गए। फलस्वरूप ज्येष्ठ शुक्ला १० सम्वत् १९८१ को भागवती दीक्षा में प्रदीक्षित हो गए और पाया नया नाम श्री पुष्करमुनि श्रद्धेय ताराचन्द्रजी म. के अन्तेवासी बनकर पुष्करमुनि जिनवाणी की स्वाध्याय-साधना में प्रवृत्त हो गए। सतत साधना से मुनि श्री पुष्करजी के चरण निरन्तर सघने लगे और अन्ततः साधुचरण प्रमाणित हो गए। उनकी 'साहू चरिया' प्रोन्नत होती गयी और अन्ततः वे उपाध्याय परमेष्ठी के पड़ाव पर प्रतिष्ठित हो गए।
'जिन साहू' की चर्या अपनी होती है। उसमें ज्ञान-विज्ञान सम्पृक्त संयम और तपश्चरण की प्रधानता रहती है। उपाध्याय श्री पुष्करमुनि के सारे करम अद्भुत है। वे मांत्रिक विद्या के स्वामी हैं। वाणी की सिद्धि में पारंगत हैं। धर्मावरण में उत्तरोत्तर अभिवृद्धि हो रही है। उनके द्वारा लोक में संयम और सदाचार के संस्कार निरन्तर विस्तार पाने लगे। वाणी ने उनकी लेखनी को वरदान प्रदान किया फलस्वरूप काव्य, कहानी तथा निबंध उपन्यास आदि काव्य रूपों में सशक्त अभिव्यक्ति प्रदान की ।
ग्रंथों के प्रणवन में ही नहीं, अपितु ग्रंथ से निग्रंथ मार्ग पर चलने वाली विरल सन्तात्माओं का भी निर्माण किया, अनेक सुधी संतों को उन्होंने भागवती दीक्षा प्रदान की, जिनके द्वारा आगम का उजागरण और सदाचरण का प्रवर्तन हो रहा है। उपाध्याय श्री कर्म से कर्मयोगी हैं, और धर्म से धर्मयोगी वे धन्य है, अनन्य है मेरी अनन्त मंगल कामना और भावना है कि शत-शत अब्दियाँ वे हमें चारित्र और ज्ञान आलोक विकीर्ण करते रहें। इन कतिपय शब्दों के व्याज से उपाध्याय श्री के शुभचरणों में अपनी अनन्त वन्दनाएँ अर्पित समर्पित करता हूँ।
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अन्तर्मुखी महापुरुष
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-जे. डी. जैन
(उपाध्यक्ष अ. भा. श्वे. स्था. जैन कान्फ्रेंस)
अध्यात्मयोगी उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म. सा. का सन् १९८३ में दिल्ली में पदार्पण हुआ। गुरुदेवश्री के दर्शन हेतु मैं पहुँचा, उस समय मैं दिल्ली महासंघ का प्रधान था अतः गुरुदेवश्री के स्वागत समारोह का दायित्व मुझ पर था, मैंने प्रथम दर्शन में ही पाया कि उपाध्यायश्री जी प्राचीन ऋषि-मुनियों की परम्परा के एक तपःपूत आत्मा हैं, उनका शरीर गौरवर्ण का था, चेहरा भरा हुआ था, उन्नत और प्रशस्त भाल, विशाल वक्षस्थल, वृषभ से कंधे, साखू पेड़-सा लम्बा सुडील कद, उपनेत्र में से चमकते हुए तेजस्वी नेत्र, मुस्कुराती हुई मुख मुद्रा और अजानु-लम्बी भुजाएँ, यह था उनका बाह्य व्यक्तित्व जिसको देखकर कौन आकर्षित नहीं होता, प्रथम दर्शन में ही मैं अत्यधिक प्रभावित हुआ।
सन् १९८३ का चातुर्मास "चांदनी चौक" दिल्ली हुआ, उस वर्षावास में मैंने बीसों बार गुरुदेवश्री के दर्शन किए और भावभीनी प्रार्थना की कि आप गाजियाबाद पधारें। गुरुदेव श्री गाजियाबाद | पधारे और तीन महीने तक वहाँ पर विराजे भी, उस समय बहुत ही सन्निकट रहकर गुरुदेवश्री के दर्शन किए, वार्तालाप किया, गुरुदेवश्री को निहारकर मुझे अपने स्वर्गीय गुरुदेव धर्मोपदेष्टा फूलचन्द जी म. की सहज स्मृति हो आई। उनका बाह्य व्यक्तित्व धर्मोपदेष्टा श्री फूलचंद जी म. के समान ही था तो आन्तरिक व्यक्तित्व भी बहुत कुछ समान पाकर मेरा हृदय आनन्द से झूम उठा, उपाध्याय श्री जी का मृदु व्यवहार, शांतिपूर्ण किन्तु क्रांतिकारी विचार, नपी तुली शब्दावली, वात्सल्य, सरलता, सौम्यता, विद्वता और प्रवचन कला में अपूर्व दक्षता देखकर मुझे लगता कि गुरुदेवश्री साक्षात् सरस्वती पुत्र हैं।
अक्षय तृतीया का पावन प्रसंग था, गुरुदेवश्री उस समय हस्तिनापुर में विराज रहे थे, उस दिन मुख्य अतिथि के रूप में चन्द्रास्वामी उपस्थित हुए, जिस समय चन्द्रास्वामी वहाँ पर पहुँचे, उस समय गुरुदेव बन्द कमरे में ध्यानस्थ थे क्योंकि वे नियमित रूप से ग्यारह से बारह बजे तक ध्यान करते थे। चन्द्रास्वामी ने मेरे से पूछा, उपाध्यायश्री जी कहाँ पर है? मैंने कहा, गुरुदेवश्री कमरे में आराम कर रहे हैं, ध्यानमुद्रा से निवृत्त होने के पश्चात् ज्यों ही द्वार खुला, चन्द्रास्वामी कमरे में पहुँचे, उन्होंने पूछा क्या आप आराम कर रहे थे ? गुरुदेव ने मुस्कराते हुए कहा कि ध्यान भी आराम ही है, ध्यान में साधक इन्द्रियों के विषयों से हटकर अन्तर्मुखी होता है और जब वह अन्तर्मुखी होता है तो उसे अपार आनन्द की अनुभूति होती है, वह आराम मिलता है जो बहिर्मुखी स्थिति में नहीं मिलता। आराम की यह परिभाषा सुनकर चन्द्रा
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