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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ जीवन और दर्शन बन जाती है। उसे चाह नहीं होती कि, कोई । अत्यन्त सुन्दर थी। सरल-सीधी भाषा में आगम के गहन विषय की उसके पास आए, उसकी तथा उसके महक की प्रशंसा करे। फूल प्रस्तुति करना उन्हें खूब आता था। उनमें सद्गुण, बौद्धिकता एवं की सुवास को संग्रहीत करने कलम-कापी या कैमरा सक्षम नहीं है, . सदाचार-संयम का अनूठा संगम था। जप और ध्यान उनके जीवन न ही लेख-संगीत या शायरी
में ताने-बाने की भाँति बुने हुए थे। ऐसे ही जिनशासन उपवन में एक सौरभमय पुष्प थे हमारे तप, जप एवं ध्यान की निरन्तरता में जनता चमत्कार ढूँढने पूज्यवर। जिनकी साधना पर, सौरभ पर, लेखनी पर जैन समाज की अभ्यस्त है। श्री उपाध्याय जी म. सा. के प्रभाव की चर्चा में को गौरव है। पू. श्री उपाध्यायजी का जीवन काँटों के बीच गुलाब जनता के जिह्वारथ पर चढ़ कर चारों ओर पहुँचती थी, मुझे भी ही था। इस सुंदर गुलाब ने कठिनाइयों को सहन कर अपना जीवन वर्षों से उसकी गूंज सुनाई देती थी। प्रभुचरणों में अर्पित किया।
सन् १९८८ में उपाध्याय श्री जी का वर्षावास इन्दौर में था। जन्मभूमि भी भाग्यशालिनी है जहाँ ऐसे महापुरुष ने जन्म
वहीं पहली और अंतिम बार मुझे उनके दर्शन एवं सान्निध्य का लिया। उपाध्याय श्री के सद्गुणों का वर्णन शब्दातीत है। क्योंकि । सौभाग्य मिला। तब उनके अगाध शास्त्रज्ञान की बहती गंगा में आपके गुणों का न छोर है, न ओर है। ऐसा प्रतीत होता है एक
अवगाहन करने का मुझे मौका मिला। मैं नित्य ही नए-नए प्रश्न विशाल गुणों का सागर ठांठें मार रहा है। मैं कहाँ से प्रारम्भ करूँ? | लेकर उनकी सेवा में उपस्थित होती और वे बड़ी तत्परता, कैसे करूँ? क्या लिखू ? लेखनी तो उठा बैठी हूँ लेकिन कुछ समझ
तन्मयता एवं स्नेह से मेरे प्रश्नों का उत्तर देते। उनकी तत्त्व में नहीं आता पहले किसका वर्णन करूँ। उनके अन्दर विद्वत्ता थी,
विवेचन की शैली मेरे मानस में अभिनव उत्साह का संचार करती। वात्सल्यता तथा परदुःखकातरता भी थी साथ ही साथ वे सुलेखक
कई बार वे प्रातः प्रवचन में उन्हीं प्रश्नों के उत्तर विशद रूप से भी थे। उपाध्याय श्री भले ही इस तन से चले गये पर हमारे हृदय
देकर जनमानस में तत्त्वज्ञान की रुचि जगाते। में चिरकाल तक यादें विद्यमान रहेंगी। महापुरुष जब अपने नाशवान तन का परित्याग कर देते हैं तो वे अपने गुणों से
उपाध्याय श्रीजी गुरुवार को पूर्ण मौन रखते थे। मैंने सोचा, अजर-अमर हो जाते हैं। कुछ आत्माएँ इस रूप में जन्म लेकर ।
आज मौन के कारण आगमचर्चा नहीं हो पाएगी, अतः उस दिन अपने आदर्शों को छोड़कर जाती हैं।
मैंने छुट्टी कर दी। आधे घण्टे तक वे मेरी प्रतीक्षा करते रहे, फिर
सन्देश भेजा कि आप आ जाइए, आगम चर्चा तो मौन में भी हो अम्बर का तुझे सितारा कहूँ, या धरती का रत्न प्यारा कहूँ?
सकती है। वे प्रायः कहते, शुभोपयोग एवं शुद्धोपयोग में बिताया त्याग का एक नजारा कहूँ, अथवा डूबतों का तुझे सहारा कहूँ? ..
गया समय ही सार्थक होता है। उनकी वात्सल्य-वर्षा पाकर मुझे कई जैन समाज पर आपका जो उपकार है वह अवर्णनीय है। जैसे बार मेरे गुरुदेव श्री मालवकेसरी सौभाग्यमल जी म. सा. की स्मृति सागर को गागर में भरना असम्भव है, ऐसे ही आपके गुणों का हो उठती। उपाध्याय श्रीजी से भी मैं कहती कि आपके व्यक्तित्व वर्णन करना मेरी बुद्धि से बाहर है। आपका व्यक्तित्व हिमालय से एवं स्वभाव में मुझे गुरुदेव की झलक मिलती है तो वे कहतेऊँचा, सागर से गंभीर, मिश्री से मधुर और नवनीत से भी मालवकेसरी जी से मेरा घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है और वे उनके साथ सुकोमल था। आपश्री की आत्मा जहाँ पर भी विराजमान है वहाँ } बिताए क्षणों की स्मृति में खो जाते, फिर अचानक उनके संस्मरण आत्मा को शान्ति मिले। ऐसे सुलेखक के चरणों में श्रद्धा सुमन सुनाने लगते। उनकी उदारता, गुणग्राहकता, गांभीर्य देखकर मन अर्पित करते हुए
श्रद्धा से भर उठता। शत-शत वन्दन !
प्रवचन सभा में उपाध्याय श्रीजी एवं तत्कालीन उपाचार्य श्रीजी
को एक साथ देखकर मुझे चाँद-सूरज युगल की अनुभूति होती। गुरु णमो उवज्झायाणं : एक स्मृति चित्र ) उपाध्याय पद पर और शिष्य उपाचार्य पद पर रहे, यह भी
इतिहास की एक अनूठी मिसाल है। अपने प्रिय शिष्य श्री देवेन्द्र -महासती डॉ. ललितप्रभाजी। मुनिजी म. सा. को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित पाकर उनका मन
कितना आल्हादित हुआ होगा, हम केवल कल्पना कर सकते हैं। अध्यात्मयोगी सन्तरल उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म. सा. का व्यक्तित्व भव्य एवं अनूठा था। वार्तालाप की शैली अत्यन्त मनमोहक
उपाध्याय श्रीजी देह से भले ही आज हमारे बीच नहीं रहे पर थी। बातचीत के प्रसंग में उनकी दृष्टि उपस्थित व्यक्ति के विचारों अपने विशिष्ट गुण-विग्रह से वे सदैव हमारे साथ रहेंगे। उनकी की गहराई को मापती हुई सी प्रतीत होती थी। आगन्तुक को सहज स्मृतियाँ जन-जन के मन पर अमिट रहेंगी। जब-जब उनकी याद ही अपना बना लेने की प्रवृत्ति उनकी विशेषता थी। प्रवचन शैली आएगी, मन कह उठेगा
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