________________
६४
परमाराध्य उपाध्यायश्री
- उपप्रवर्तिनी साध्वी श्री उमेशकुमारी जी एवं साध्वी परिवार
योगनिष्ठ, परमसाधक, आराध्य, श्रद्धेय मुनिराज श्री श्री १००८ श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. परम धाम स्वर्गधाम को प्राप्त हो गये, ऐसा जानकर हार्दिक कष्टानुभूति हुई। स्वास्थ्य बेशक अनुकूल न था पर ! इतनी शीघ्र चले जायेंगे, सोचा नहीं था। आपके सिरछत्र आपश्री को आचार्य के सिंहासन पर आरूढ़ कर तत्काल विदाई ले जायेंगे, कौन जानता था। आज तो उनका बहार देखने का समय था अपने सुशिष्य रत्न के ठाठ देखने की बेला थी पर! सब छोड़कर चल दिए मानो आगे कोई अनिवार्य कार्य करना हो खेद हुआ उनके जाने का अतीव दुःख हुआ उनके जाने का आपको साथ लेकर पंजाब पधारते, इस धरा को सींचते, सभी को दर्शन एवं वाणी से तृप्त करते मगर हमारा भी ऐसा सौभाग्य कहाँ ? आपको भी गहरा दुःख होना ही था। हमारा समस्त साध्वी वर्ग महती संवेदना प्रकट कर रहा है।
नमो उवज्झायाणं
-साध्वी श्री मनोरमा कुमारी "मुक्त" ( उप प्रवर्तिनी श्री मगन श्री जी म. की अन्तेवासी शिष्या)
उद्यन्त्वमूनि बहूनि महा महासि, चन्द्रोऽप्यले भुवन मण्डल मण्डनाय । सूर्यादृते न तदुदेति न चास्तमेति, येनोदितेन दिनमस्तमितेन रात्रिः ॥
आकाश में टिमटिमाता प्रकाश तो बहुत सारे करते हैं। चन्द्रमा भी लोकालंकरण के लिए पर्याप्त है। परन्तु वास्तविक उदय और अस्त तो सूर्य का होता है जिसके उदय से दिन व अस्त से रात्रि होती है। महापुरुषों का गमन-आगमन पूर्वोक्त अन्योक्ति द्वारा उपमित अभिहित होता है।
जन-जन की जिह्वा पर जिसका नाम है। मन की गहराइयों में जिनकी स्मृतियों का मधुरगान है, कण-कण में जिनका निवास है अवनि अम्बर जिसकी याद में उदास है, दिव्यता एवं भव्यता की साकार प्रतिमा जो अभी कुछ समय पूर्व हमारे मध्य में विराजित थे जिनके पावन दर्शन करने पर मेरा मन-मयूर नाच उठा था वे थे अध्यात्मयोगी राजस्थान केसरी उपाध्याय प्रवर श्री पुष्करमुनि जी म. सा.। बात उस समय की है जब उपाध्याय श्री जी अपनी विद्वान शिष्यमण्डली सहित चाँदनी चौक चातुर्मास हेतु दिल्ली पधारे। हमें त्रीनगर आपश्री के पावन दर्शनों का लाभ प्राप्त हुआ। वह समय वह दृश्य वह क्षण मुझे कितने प्रभावित कर गए बता पाना असंभव है। फिर भी मैं प्रयास कर रही हूँ। प्रथम दर्शन की
O
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
अनुभूति शब्दातीत है क्योंकि उस समय तीन महिमा मंडित परमेष्ठी देवों के दर्शन हो रहे थे। (१) उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी (२) श्री देवेन्द्र मुनि जी शास्त्री तथा अन्य साधुगण । सभी तिण्णाणं तारयाणं की उपमा से उपमित नजर आ रहे थे। आपश्री जी त्याग की सजीव मूर्ति थे। मुख पर सौम्यता, वाणी में मधुरता, स्वभाव में चन्द्रमा समान शीतलता, सागर वर गम्भीरता एवं दिव्य योगी थे। मुनियों के मध्य प्रवचन सभा में आपश्री की अलग-अलग ही छवि थी जैसे तारों में १६ कलाओं से चन्द्रमा सुशोभित होता है। प्रखर प्रतिभा के धनी उपाध्यायप्रवर का प्रवचन वैराग्यवर्द्धक होता था। जब आपश्री जी बोलते थे तो ऐसा प्रतीत होता था मानो सरस्वती पुत्र ही धरती पर जनता के पाप धोने आया हो। प्रवचन करने की शैली बड़ी सरल, सहज, मधुर, आकर्षक एवं श्रोताओं के अन्तस्थल को स्पर्श करने वाली थी। आपश्री की जादू भरी वाणी में जम्बूजी का वैराग्य आज भी कर्ण कुहरों में गुंजायमान है।
खुश जमालों की याद आती है, बेमिशालों की याद आती है। जाने वाले लौट कर नहीं आते, जाने वालों की याद आती है। कर्मठ योगी धुन के पक्के या निर्मल जीवन व्यवहार। त्याग तपस्या की थी मूर्ति सादा जीवन उच्च विचार ।। पूर्ण निभाया गौरव पद का डरते रहते इन्द्र से दूर। किया प्राप्त यश निर्मल तुमने, आत्म-समाधि रख भरपूर ॥ यश जीवन अपयश ही मृत्यु सदा सुनाते नीतिकार । जीवन बना यशस्वी जाता, धन्य-धन्य जीवन शत बार ॥
आपश्री के जीवन में अनगणित गुण भरे हुए थे। आपके दर्शन करने चाहे सेठ साहूकार आया या गरीब, वही आत्मधन से सुसमृद्ध होकर गया। क्योंकि परिवार या व्यापार की चर्चा आपके पास नहीं थी। वहाँ तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की चर्चा होती। इसी से आप श्री जी उपाध्याय पद को सार्थक बना रहे थे। आपश्री गुमराहों के सच्चे पथ-प्रदर्शक थे, विषमता में समता का मधुर संगीत सुनाने वाले अमर गायक थे। सत्य अहिंसा की भव्य भावनाओं के मूर्तिरूप थे। आपका सम्पूर्ण जीवन आला-निराला था। कहते हैं गुरु के स्वभाव, संस्कार और सद्गुण शिष्य में प्रतिबिम्बित होते हैं। अतः अप्रमत्त साधक पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी म. जैसे योग्य, विनीत, आज्ञाकारी, निरंहकारी, कुशल शासक के दर्शन करने पर अनुमान लगा सकते हैं कि जिनके शिष्य इतने महान हों तो गुरु कैसे होंगे। उपाध्याय श्री जी ने आजीवन ज्ञान, दर्शन, चारित्र द्वारा संघ की सेवा की तथा परलोक तैयारी (संथारा) से पूर्व यह वागडोर अपने कुशल शिष्य को सौंप गए या यूँ कहें समाज को ऐसी देन देकर गए जिस उपकार से सदियों सदियों तक जैन समाज में उन्हें याद किया जाएगा। जैन जगत सदैव आपकी स्मृति को ताजा रखेगा
207
इन्हीं चन्द श्रद्धा सुमनों द्वारा उपाध्याय प्रवर को शत्-शत् नमन वन्दन!
Private & Personal Use Cat
9950
www.lainelibrary.org 60000