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इन पंक्तियों को देखकर ऐसा लगता है कि उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी के सम्मान में श्री दिनकर जी पहले ही लिखकर रख गए हों और कह गए हो कि मैं रहूँ या न रहूँ किन्तु मेरे ये श्रद्धा से सने हार्दिक भाव सुमन उस महापुरुष की स्मृति में अवश्य समर्पित कर देना, क्योंकि उपरोक्त चारों पंक्तियाँ उस महापुरुष के चहुँमुखी व्यक्तित्व का परिचय दे रही हैं। जहाँ उन्होंने श्रेष्ठ व उच्च ज्ञान- तूलिका से अपने जीवन-चित्र में कविता द्वारा बहुरंगी रंग भरा, वहीं उन्होंने उच्च-साधना से प्राप्त विविध चमत्कारों से लोगों की वीरान जिन्दगी में खुशियों की चांदनी बिखेरी और विदा होते-होते अंतिम पंक्ति को भी सिद्ध कर गए कि
"बड़ी वह रूह है, जो रोये बिना तन से निकलती है।"
इसी को ही तो जैन आगमों की भाषा में पंडित मरण या समाधिमरण के नाम से जाना जाता है।
हमारे विचार, हमारा आचार और हमारी जीवन जीने की शैली हमको महापुरुषों या साधारण जनों की श्रेणी में खड़ी करती है। क्या खूब लिखा है किसी ने कि
"Great minds have purposes, others have wishes. Little minds are tamed and subdued by misfortunes, but great minds rise above them."
महापुरुषों के लक्ष्य होते हैं और दूसरों की इच्छाएँ मात्र । क्षुद्र व्यक्ति विपत्तियों से दब्बू और अभिभूत हो उठते हैं, किन्तु महान् व्यक्ति उनसे ऊपर उठ जाते हैं। आगे कहा है कि
"Great actions speak great mind."
महान कार्य, महान मस्तिष्क के द्योतक होते हैं, क्योंकि जिस तरह हमारे आचार रूपी महल के लिए विचार रूपी नींव की जरूरत है, जिस प्रकार सृष्टि-पताका हेतु दृष्टि दण्ड की आवश्यकता है। ठीक उसी तरह महान् कार्य भी शुद्ध, सात्विक व सरल मस्तिष्क के सहयोग से संपादित होते हैं।
मेरे हिसाब से समय और समाज के अनुसार जो कोई महापुरुष धर्म का उद्धार करने आता है। उसे महापुरुष कहें या अवतार कहें, इसमें कुछ फर्क नहीं पड़ता। वे जगत में आकर जीवों को अपना जीवन संगठित करने का मार्ग बता जाते हैं। जो दिव्यय-पुरुष जिस समय आता है उस समय उसी के आदर्श के अनुरूप सब कुछ होता है-मनुष्य बनते हैं और सम्प्रदाय चलते हैं। समय पर वे सम्प्रदाय विकृत हो जाने पर वैसे ही अन्य संस्कार बन जाते हैं।
हर अवतार, हर पैगम्बर ने दुनियां को एक न एक महान् सत्य का सन्देश दिया है जब तुम सर्वप्रथम उस सत्य-सन्देश का श्रवण करते हो तत्पश्चात् उस महापुरुष की जीवनी का अवलोकन करते हो तो उस सत्य के प्रकाश में उसके सम्पूर्ण जीवन को पूर्णतः व्याख्यायित पाते हो।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ
उपाध्याय प्रबर की जीवन- प्रतिमा को किसी भी कोने से जांचो परखो, वह वहीं से आत्म-ज्ञान तथा आत्म-संयम से भरी दिखाई पड़ती है। जब हम उपाध्याय श्री जी के सजीले व बहु-आयामी व्यक्तित्व कृतित्व पर नजर दौड़ाते हैं तो फिलिप जैम्स बेले द्वारा कथित कथन को साकाररूप लेते देखते हैं। उसने कहा था कि
"The greatmen never in dead, not years; in thoughts, not breaths; in feeling, not in figure on a dial. We should count time by heat-throbbs.'
महापुरुष कार्यों में जीवित रहते हैं, न कि वर्षों में ये विचारों में जीवित रहते हैं, सांसों में नहीं। वे भावों में जीवित रहते हैं, घड़ी के डायल पर लिखें अंकों में नहीं। आगे उसने और भी गजब का लिखा है कि हमें अर्थात् महापुरुषों की श्रेणी में पहुँचने के लिए समय की गणना हृदय की धड़कनों से करनी चाहिए, तभी हम समय के महत्व को समझ सकते हैं तथा अपने जीवन को बदल सकते हैं ये आगे लिखते हैं जैसे कि
'He most lives who thinks most, fells the noblest-acts the best. '
वही संसार में सबसे अधिक जीवित रहता है जो सर्वाधिक विचार करता है, उत्तम भाव रखता है और सर्वोत्तम कार्य करता है।
ऐसे महापुरुषों की जीवनियाँ ही हमें याद दिलाती हैं कि हम भी अपना जीवन महान् बना सकते हैं और मरते समय अपने पदचिन्ह समय की रेत पर छोड़ सकते हैं। यथा
Lives of great man all remind us, We can make our lives sublime, And, deporting, leave behind us, Footprints on the sands of time. उपाध्यायप्रवर के आदर्श पदचिन्ह स्वर्णिम इतिहास के पृष्ठों पर सदैव अंकित रहेंगे तथा आने वाली पीढ़ियों का मार्गदर्शन करेंगे और हमको या आगत सचेतन मस्तिष्क युक्त मनुष्य को आदर्शमय जीवन जीने की प्रेरणा देते रहेंगे।
आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी महाराज !
आचार्य सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. ने अपने गुरुदेवश्री से वह सब कुछ सीखा जो एक शिष्य को सीखना चाहिए था। मुझे बिल्कुल भी संकोच नहीं होगा आचार्यप्रवर को उपाध्यायश्री की जीवन-गन्ध कहने में। इसी गंध की बदौलत श्री देवेन्द्र मुनि जी संघ के मुनीन्द्र अर्थात् श्रमणसंघीय श्रमण श्रमणी तथा श्रावक-श्राविका के अनुशास्ता बने हैं। इसी के साथ हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि श्रमण संघ को जो इतने विद्यासंपन्न एवं गुणसंपन्न आचार्यप्रवर प्राप्त हुए हैं, उसमें दो अदृश्य महापुरुषों का सहयोग कभी नहीं भुलाया जा सकता। उसमें पहला महापुरुष उस जौहरी के सदृश है,
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