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श्रद्धा का लहराता समन्दर
सरलता की साकार मूर्ति सद्गुरुदेव
-साध्वी श्री देवेन्द्र प्रभाजी म. (महासती चंदनबाला जी म. की सुशिष्या)
साधक के जीवन में सबसे पहली आवश्यकता है, सरलता। जो जीवन कापट्य से परिपूर्ण हो, छल और छद्म से युक्त हो, उस ऊसर भूमि पर साधना का कल्पवृक्ष पनप नहीं सकता। परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य का सम्पूर्ण जीवन सरलता से ओत-प्रोत था, जो उनके मन में था, वही उनकी वाणी में था और वही उनके आचरण में था, उनका जीवन एकरूप था, इसीलिए उनके जीवन के कण-कण में धर्म रमा हुआ था। गुरुदेवश्री शासन प्रभावक संत रत्न थे, श्रमणसंघ के एक ज्योतिर्धर महापुरुष थे पर उनके चरणों में हमारे जैसी छोटी साध्वियों भी पहुँच जाती तो गुरुदेवश्री हमारे साथ भी वार्तालाप करने में संकोच नहीं करते, वे हमारे को मधुर शब्दों में हित शिक्षाएँ प्रदान करते थे और हमें ज्ञान-ध्यान की प्रेरणा प्रदान करते।
गुरुदेवश्री फरमाया करते थे कि देवेन्द्र! तेरी जन्मभूमि जालोर में ही मेरी दीक्षा हुई है, तेरी भी दीक्षा वहीं हुई और मेरी भी दीक्षा वहीं हुई है, इसलिए अप्रमत्त होकर सारे प्रपंच छोड़कर ज्ञान-ध्यान करो, जब भी मैं गुरु चरणों में पहुँची, तब उन्होंने ज्ञान-ध्यान की प्रबल प्रेरणा प्रदान की। धन्य है, मेरे परम आराध्य गुरुदेव को, जिनका जीवन सद्गुणों से मंडित था, उनके श्रीचरणों में मैं अपनी भावभीनी श्रद्धार्चना समर्पित कर यही मंगल कामना करती हूँ कि आपके तेजस्वी जीवन से हम सदा प्रेरणा प्राप्त कर साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ती रहें।
मेरे आराध्य गुरुदेव
-साध्वी डॉ. दिव्यप्रभा जी म.
भारतीय संस्कृति में माता-पिता और गुरु का महत्वपूर्ण स्थान है। माता-पिता जन्म देते हैं किन्तु गुरु जीवन को सुसंस्कृत और परिष्कृत करते हैं। वे कलाकार हैं जो अनघड़ पत्थर को सुन्दरतम् आकृति प्रदान करते हैं। इसलिए माता-पिता के पश्चात् गुरु को स्थान दिया गया है।
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गुरु शब्द हमारी पावन संस्कृति में अत्यन्त वर्चस्व जमाये हुए है। आगम की भाषा में गुरु चक्षुप्रदाता चक्खुदयाल है मोह एवं अज्ञान के आवरण को दूर करके सम्यक् पथ दिखाने वाला गुरु ही है। संसार में जीवन जीने की कला सिखाने वाला गुरु ही है। गु का अर्थ अन्धकार और रु का अभिप्राय नष्ट करने वाला। अतः अज्ञान के अँधेरे को नष्ट करके ज्ञान का / विवेक का ज्योतिर्मय दीप
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प्रज्ज्वलित करने वाला गुरु है। गुरु की महत्ता का बखान करते हुए किसी विद्वान ने कहा है :
"अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् । तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥"
गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए प्रबुद्ध मनीषियों ने उसे ईश्वर से भी पहले नमस्य एवं पूज्य बताया है।
"गुरु" शब्द का उच्चारण करते ही विराट् व्यक्तित्व के धनी अध्यात्मयोगी पूज्य गुरुदेव उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. सा. की पावन स्मृति मस्तिष्क में छा जाती है। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में जितना कहा जाये, कम है। व्यक्ति जल की तरह ससीम होता है, किन्तु व्यक्तित्व जलनिधि की तरह असीम। उनका व्यक्तित्व फूलों का एक गुलदस्ता था, जिसमें अनेक रंग/गंध / रस एक सूत्र में बँधे थे। हुए
पूज्य गुरुदेवश्री का जीवन मिश्री की तरह मीठा और गुलाब की तरह सुरभियुक्त था। मिश्री को जिधर से चखो मीठी ही लगेगी। गुलाब के फूल को कहीं से उसकी किसी भी पत्ती को सुधा जाये एक-सी सुगन्ध प्राप्त होगी। पूज्य श्री के जीवन को कहीं से झाँककर देखो गुणों का पुंज ही दृष्टिगोचर होता है।
गुरुदेवश्री का जीवन सहज स्वाभाविक था । कृत्रिमता का लेश भी नहीं। जीवन में दोहरापन तो कभी नजर ही नहीं आया। न तो कथनी में अन्तर दिखाई दिया और न अन्दर बाहर भेद ही दृष्टिगोचर हुआ। दुराव, छिपाव का लवलेश भी नहीं था :
"जहा अन्तो तहा बहि जहा बहि तहा अन्तो।"
जैसे भीतर थे वैसे ही बाहर थे किसी कवि की पंक्तियों में हम यह कह सकते हैं
"जैन समाज के वे नूर थे, छल और कपट से सदा दूर थे। जीते जी संग्रह किया संयम धन का जब चले तो पूर्णता से भरपूर थे।"
पूज्य गुरुदेव संयम की अकम्पशिखा थे। सुमेरू के समान अडिग थे। जिस प्रकार आंधी और तूफान आने पर भी सुमेरू चलायमान नहीं होता, स्थिर रहता है, उसी प्रकार अनेक परिषह और उपसर्ग आने पर भी आप स्थिर रहते थे। संयम को रोम-रोम में आत्मसात् किए हुए थे अपने आपको पूर्णरूपेण संयम में रमाये हुए थे :
अगरबत्ती की तरह जलकर खुशबू देने वाले बहुत थोड़े होते हैं, मोमबत्ती की तरह गलकर प्रकाश देने वाले भी बहुत थोड़े होते हैं। धर्म और आगम की चर्चा करने वाले तो बहुत मिलेंगे....... किन्तु आचरण के सांचे में ढालने वाले बहुत ही थोड़े मिलेंगे।
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