Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
व्यवस्थायाः । सा चेदुभयात्मन्यप्यस्ति किं तत्र स्वसिद्धान्तविषमग्रह निबन्धनप्रदोषेण प्रामाणिकत्व - प्रसङ्गादित्यलमतिप्रसङ्ग ेन, अनेकान्तसिद्धिप्रक्रमे विस्तरेणोपक्रमात् ।
वक्ष्यमाणलक्षणलक्षितप्रमारणभेदमनभिप्रेत्यानन्तरसकलप्रमाणविशेष साधारणप्रमाणलक्षणपुरःसरः ‘प्रमाणाद्' इत्येकवचननिर्देशः कृतः । का हेतौ । प्रर्थ्यतेऽभिलष्यते प्रयोजनार्थिभिरित्यर्थो हेय उपादेयश्च । उपेक्षणीयस्यापि परित्यजनीयत्वाद्धे यत्वम्; उपादानक्रियां प्रत्यकर्मभावान्नोपादेयत्वम्, हानक्रियां प्रति विपर्ययात्तत्त्वम् । तथा च लोको वदति 'हमनेनोपेक्षणीयत्वेन परित्यक्तः' इति । सिद्धिरसतः प्रादुर्भावोऽभिलषितप्राप्तिर्भावज्ञप्तिश्वोच्यते । तत्र ज्ञापकप्रकरणाद् ग्रसतः प्रादुर्भावलक्षणा सिद्धिह गृह्यते । समीचीना सिद्धिः संसिद्धिरर्थस्य संसिद्धि 'अर्थसंसिद्धि:' इति । अनेन कारणान्त
अपना सिद्धान्त रूप बड़ा भारी प्राग्रह या पिशाच जिसका निमित्त है ऐसा जो भेदाभेद में द्वेष रखना है वह ठीक नहीं है, यदि द्वेष रखोगे तो अप्रमाणिक कहलाओगे, इस प्रकरण पर अब बस हो, अर्थात् इस प्रकरण पर अब और अधिक यहां कहने से क्या लाभ आगे अनेकान्त सिद्धिके प्रकरण में इसका विस्तार से कथन करेंगे ।
आगे कहे जाने वाले लक्षण से युक्त जो प्रमाण है उसके भेदों को नहीं करते हुए अर्थात् उनकी विवक्षा नहीं रखते हुए यहां सूत्रकारने संपूर्ण प्रमाणों के विशेष तथा सामान्य लक्षण वाले ऐसे प्रमाण का " प्रमाणात् " इस एकवचन से निर्देश किया है "प्रमाणात्" यह हेतु अर्थ में पंचमी विभक्ति हुई है, प्रयोजनवाले व्यक्ति जिसे चाहते हैं उसे कहते हैं । वह उपादेय तथा हेयरूप होता है, उपेक्षणीय का हेय में अन्तर्भाव किया है, क्योंकि उपादान क्रिया के प्रति तो वह उपेक्षणीय पदार्थ कर्म नहीं होता है, और हेय क्रिया का कर्म बन जाता है, अतः हेय में उपेक्षणीय सामिल हो जाता है जगत् में भी कहा जाता है कि इसके द्वारा मैं उपेक्षणीय होने से छोड़ा गया हूं ।
सत् की उत्पत्ति होना अथवा इच्छित वस्तु की प्राप्ति होना अथवा पदार्थ ज्ञान होना इसका नाम सिद्धि है, इन तीन अर्थों में प्रर्थात् उत्पत्ति, प्राप्ति, ज्ञप्ति अर्थों में से यहां पर ज्ञापक का प्रकरण होने से असत् का उत्पाद होना रूप उत्पत्ति अर्थ नहीं लिया गया है ( प्राप्ति औौर ज्ञप्ति रूप अर्थ लिया गया है ) समीचीन अर्थ सिद्धि को अर्थसिद्धि कहते हैं, इस पद के द्वारा अन्य कारण जो कि विपरीतज्ञान कराने वाले हैं उनसे अर्थसिद्धि नहीं होती ऐसा कह दिया समझना चाहिए । जाति, प्रकृति आदि के भेद से होने वाले उपकारक पदार्थ की सिद्धि का भी यहां ग्रहण हो गया है, इसी को बताते हैं - अकेले अकेले निम्ब, लवण प्रादि रसवाले पदार्थों में हम
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