Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रतिज्ञाश्लोक: भेदाभेदयोः परस्परपरिहारेणावस्थानादन्यतरस्यैव वास्तवत्वादुभयात्मकत्वमयुक्तम् ; इत्यसमीक्षिताभिधानम् ; बाधकप्रमाणाभावात् । अनुपलम्भो हि बाधकं प्रमाणम्, न चात्र सोऽस्तिसकलभावेषूभयात्मकत्वग्राहकत्वेनैवाखिलाऽस्खलत्प्रत्ययप्रतीतेः । विरोधो बाधकः; इत्यप्यसमीचीनम् ; उपलम्भसम्भवात् । विरोधो ह्यनुपलम्भसाध्यो यथा-तुरङ्गमोत्तमाङ्ग शृङ्गस्य, अन्यथा स्वरूपेणापि तद्वतो विरोधः स्यात् । न चानयोरेकत्र वस्तुन्यनुपलम्भोस्तिअभेदमात्रस्य भेदमात्रस्य वेतरनिरपेक्षस्य वस्तुन्यप्रतीतेः । कल्पयताप्यभेदमात्रं भेदमात्रं वा प्रतीतिरवश्याऽभ्युपगमनीया-तनिबन्धनत्वाद्वस्तु
प्रकार प्रमाण इस पद का व्याकरण के अनुसार निरुक्ति अर्थ हुआ । इसका सरलभाषा में यह सार हुअा कि प्रमाण मायने ज्ञान या आत्मा है।
शंका-भेद और अभेद तो परस्पर का परिहार करके रहते हैं अतः या तो भेद रहेगा या अभेद ही रहेगा। ये सब एक साथ एक में कैसे रह सकते हैं, अर्थात् कृत साधन आदि में से एक साधन प्रमाण में रहेगा सब नहीं। इसलिये एक को भेदाभेदरूप कहना अयुक्त है।
समाधान-ऐसा यह कहना ठीक नहीं क्योंकि एक जगह भेदाभेद मानने में कोई बाधा नहीं आती है, देखिये- यदि भेदाभेद रूप वस्तु दिखाई नहीं देती तो, या भेदाभेद को एकत्र मानने में कोई बाधा आती तो हम आपकी बात मान लेते किन्तु ऐसा बाधक यहां प्रमाण के विषय में कोई है ही नहीं, क्योंकि संपूर्ण पदार्थ उभयात्मक भेदाभेदात्मक-द्रव्यपर्यायात्मक ही निर्दोषज्ञान में प्रतीत होते हैं।
शंका-भेद और अभेद में विरोध है—एक का दूसरे में अभाव है-यही बाधक प्रमाण है।
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि एक दूसरे में वे भेदाभेद रहते ही हैं । अतः जब वैसा उपलब्ध ही होता है तब क्यों विरोध होगा, विरोध तो जब वस्तु वैसी उपलब्ध नहीं होती तब होता है, जैसे घोड़े के सींग उपलब्ध नहीं है अतः सींग का घोड़े में विरोध या अभाव कहा जाता है, किन्तु ऐसा यहां नहीं है, यदि वैसे उपलब्ध होते हुए भी विरोध बताया जाय तो स्वरूप का स्वरूपवान से विरोध होने लगेगा। भावाभाव का एक वस्तु में अनुपलंभ भी नहीं है, उल्टे भेदरहित अकेला अभेद या भेद ही वस्तु में दिखायी नहीं देता है, तथा भेद या अभेदमात्र की मनचाही कल्पना ही भले कर लो किन्तु प्रतीति को मानना होगा, क्योंकि प्रतीति-अनुभव से ही वस्तु व्यवस्था होती है, ऐसी प्रतीति तो सर्वत्र भेदाभेदरूप ही हो रही है तो फिर व्यर्थ का
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